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सुयोधन राजाकी कथा ।
परम्परासे चले आये हुए आचार्य महाराजका कहना है । इस बातको सुनकर राजा बोला-जिस नगरमें जीव मारे जायँ, उस नगरसे मुझे कोई मतलब नहीं । जहाँ मैं हूँ वहीं नगर है । ऐसे सोनेके गहनेसे क्या प्रयोजन जिससे कान ही टूट जाय।
राजाने और भी कहा-जो अपना हित चाहता है उसे हिंसा न करनी चाहिए । नीतिकारोंने भी कहा है कि जो राजा अपने जीवनको, बलको और निरोगताको चाहता है, उसे हिंसा न करनी चाहिए । वल्कि जो दूसरा करे उसे भी मना कर देना चाहिए । और भी कहा है-सुमेरु पर्वतके बराबर सुवर्णदानसे अथवा सम्पूर्ण पृथिवीके दानसे जितना फल होता है उतना फल केवल एक जीवको मरतेसे बचाने मात्रमें हो जाता है । राजाका ऐसा निश्चय जान कर वहाँ महाजन लोग आ पहुँचे और कहने लगे-महाराज, आप कुछ न कीजिए । हम लोग सब कुछ कर लेंगे । यह सुनकर राजा बोला-यह कैसे हो सकता है, क्योंकि प्रजाजनोंके पुण्यपापका छठा अंश राजाको भी तो भोगना पड़ता है । देखो न नीतिकार भी ऐसा ही कहते हैं
यथैव पुण्यस्य सुकर्मभाजां षडंशभागी नृपतिः सुवृत्तः । तथैव पापस्य सुकर्मभाजा षष्ठांशभागी नृपतिः कुवृत्तः॥
अर्थात जिस तरह सदाचारी राजा पुण्यात्मा जीवोंके पुण्यमें छठे अंशका भागी है, उसी तरह पापियोंके पापमें भी
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