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मित्रश्रीकी कथा।
इसी बीचमें नगरदेवताने उस कापालिकसे प्रेरणा की कि तू नगरमें जाकर सच सच बात कह । तब वह नगरके लोगोंसे कहने लगा जिनदत्ताका कोई अपराध नहीं है। बन्धुश्रीके कहनेसे मेरी वेतालीविद्याने कनकधीको मारा है। ___ इधर नगरदेवताने वेतालीविद्याको भी खूब ताड़ना की। तब उसने बुढ़ियाका रूप बनाकर कहना आरंभ कियादिनदत्ता निर्दोष है, कनकश्री ही पापिनी थी, इसलिए मैंने उसे मार डाला । यह सुनकर नगरके लोग कहने लगे-अहा, यह जिनदत्ता बड़ी ही साध्वी और निर्दोष स्त्री है । इसी समय देवोंने उसपर पंचाश्चर्य किये। यह सब देखकर राजाने कहा-बन्धुश्री दुष्ट है, उसे गधे पर चढ़ाकर नगरसे निकाल बाहिर करो ! बन्धुश्रीने तब गिड़गिड़ा कर कहा-महाराज, मैंने यह सब अज्ञानसे किया है । मुझे इसका प्रायश्चित्त दिलवा दीजिए।
राजाने कहा-इस दोषका मैंने कहीं प्रायश्चित्त ही नहीं सुना । नीतिकारने कहा है-मित्रद्रोही, कृतन, स्त्री-हत्या करनेवाले तथा चुगलखोर इन चारोंका प्रायश्चित्त नहीं होता। यह कहकर राजाने उसे गधे पर बैठाकर नगरसे निकलवा दिया। बन्धुश्री तब विचारने लगी-आश्चर्य है, किये हुए पुण्य-पापका फल यहीं पर और बहुत जल्दी मिल जाता है। आचार्योंने भी कहा हैं-तीव्र पुण्य अथवा पापका फल तीन वर्षमें, या तीन महीने में, या तीन पक्षमें अथवा तीन दिनमें मनुष्यको शीघ्र मिल जाता है ।
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