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मित्रश्रीकी कथा ।
तुम्हारी बहिन सुखसे अपने घरमें रहने लगे । योगी बोलामाता, जरा धैर्य रखिए । किसीको मार डालना तो मेरे हाथोंका खेल है। मुझे इसका भय नहीं कि इससे जीवहिंसा होगी । तुम विश्वास करो कि मुझे जीवहिंसाका जरा भी भय नहीं है । कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको श्मशान में विद्या सिद्ध करके मैं जिनदत्ताको मार डालँगा। यदि न मारूँ तो खुद मैं ही आगमें जल मरूँगा । कापालिक जिनदत्ताके मारनेकी प्रतिज्ञा कर कृष्णचतुर्दशीको पूजाकी सब सामग्री लेकर मरघटमें पहुँचा। वहाँ उसने एक मरे हुए आदमीकी लाशके हाथमें तलवार बाँध कर उसकी पूजा की और मंत्र जपकर वेताली-विद्याकी आराधना की। वेताली-विद्या उस मृत शरीरमें प्रवेश कर प्रत्यक्ष हुई और बोली-कापालिक, मुझे आज्ञा दे । योगीने कहा--कनकश्रीकी सौत जिनदत्ता जिनमन्दिरमें बैठी है, उसे मार आ । 'तथास्तु' कह कर वह किलकारी मारती हुई वहाँ पहुँची जहाँ जिनदत्ता थी। लेकिन जिनेन्द्र भगवान्के माहात्म्य और सम्यग्दर्शनके प्रभावसे जिनदत्ता पर वेतालीविद्याका कुछ वश न चला। वह जिनदत्ताकी तीन प्रदक्षिणा देकर योगीके पास लौट आई। उसे देख कापालिक डर कर भाग गया और वह विद्या श्मशानमें ही पड़ी रही । इसी तरह कापालिकने तीन बार उसे जिनदत्ताको मारने के लिए भेजा, पर वह तीनों वार लौट कर आ गई। चौथी बार अपने मरणके भयसे उसने वेतालीसे कहा-तो मा, उन दोनोमें
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