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चन्दनश्रीकी कथा ।
ही क्यों न हो, पर अग्नि तो जलावेगी ही। यह सुनकर सेठने कहा-पुत्री, मेरी अज्ञानतासे जो हो गया उसे तुम्हें सहलेना चाहिए। इस तरह समझा कर सेठने सोमाको बहुतसा धन देकर कहा-तुझे अबसे खूब दान-पूजादिक पुण्य-कर्म करना चाहिए, जिससे उत्तम गतिकी प्राप्ति हो । दान देनेसे मनुष्य गौरवको प्राप्त होता है, धनके संग्रहसे नहीं। देख, मेघ ऊँचे हैं और समुद्र नीचे है, पर समुद्र संग्रही है और मेघ दानी है, इसलिए समुद्रसे मेघकी प्रतिष्ठा अधिक है । धनका फल दान है, शास्त्रका फल शान्ति है, हाथोंका फल देवोंकी पूजा करना है, क्रियाका फल धर्म और दूसरोंके दुःखोंको मिटाना है, जीवनका फल सुख है, वाणीका फल सत्य है, संसारका फल सुख-परम्पराकी द्धि है और प्रभाव तथा भव्योंकी बुद्धिका फल संसारमें शान्तिलाभ करना है। इस प्रकार सेठने सोमाको खूब समझा कर बहुत सन्तोष दिया । सोमाने उस धनसे एक विशाल जिनमंदिर बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा कराई । प्रतिष्ठाके बाद चौथे दिन उसने मुनि और आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओंका यथाशक्ति आदर-सत्कार किया। इसी अवसर पर शहरके और और लोग तथा वसुमित्रा, कामकता, रुद्रदत्त आदिको भी निमन्त्रण दिया गया । यथाशक्ति उनका आदर-सत्कार किया गया । यह सच है कि सज्जन मनुष्य निर्गुणियों पर भी दया ही करते हैं। चन्द्रमा चांडालके घर परसे अपनी चांदनीको नहीं हटाता | जब वसुमित्रा
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