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विष्णुश्रीकी कथा ।
भूतिने मुनिको पड़गाया और अतिथिके निमित्त जो लड्डू वह रखता, उसे उसने मुनिको आहारके लिए दिया । मुनिने उस लड्डूको खा लिया। विश्वभूतिने तब अपने हिस्सेके लड्डूको भी दे दिया। मुनिने उसे भी खा लिया। तब उसने अपनी स्त्रीके मुँहकी तरफ देखा । उसकी स्त्रीने जल्दीसे अपना लड्डू भी लाकर दे दिया। मुनिने उसे खाकर आहार समाप्त किया। जब उसकी स्त्रीने अपना लव लाकर दिया तो विश्वभूतिको बड़ी प्रसन्नता हुई। वह कहने लगा कि आज्ञाकारी पुत्र, सबको प्रसन्न करनेवाली विद्या, नीरोग शरीर, सज्जनोंकी संगति और प्यारी तथा आज्ञाकारिणी स्त्री ये पाँच चीजें दुःखको जड़मूलसे नाश करनेवाली हैं । इस निरन्तराय और शुद्ध आहार दानके फलसे देवोंने रत्नों और फूलोंकी दृष्टि की, सुगन्धित पवन चलाई, दुन्दुभी बजाए और जय-जयकार किया।
यह देखकर मिथ्यादृष्टि ब्राह्मण कहने लगे-महाराज, आपके बहु-सुवर्णयज्ञका यह फल है । यह सुनकर राजाको बड़ा संतोष हुआ। पर जब वे ब्राह्मण उन रत्नोंको उठाने लगे तो वे रत्न अंगारे हो गये । तब उस समय किसीने राजासे कहा-महाराज, यह आपके यज्ञका फल नहीं, किन्तु विश्वभूतिने जो मुनिको आहार दान किया, उसका फल है । इसे मुनिदानका फल समझ कर राजा मनमें विचारने लगा-सच है जो शुभ भावना संयुक्त हैं वे ही दानके पात्र
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