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कनकलताकी कथा |
१२१
उमके मित्र अचेत होकर जमीन पर गिर पड़े। यह देखकर उमयको बड़ा खेद हुआ। वह सोचने लगा-हाय ! कौन जानता था कि ये फल हलाहल विषभरे होंगे। उमय तो इसी विचार में डूब रहा था कि इधर उसके नियमकी परीक्षा करनेके लिए वनदेवता एक सुन्दर स्त्रीका रूप लेकर आई और उमयको एक फलोंसे लदा वृक्ष दिखाकर उसने कहापथिक, तूने इस कल्पवृक्षके फलोंको क्यों नहीं खाया ? तेरे मित्रोंने जो फल खाये हैं वे तो विषफल थे, पर यह कल्पवृक्ष है । इसके फल पुण्य बिना नहीं मिलते। इसके फलोंको जो एक बार खा लेता है, उसके सब रोग दूर हो जाते हैं | वह फिर अमर हो जाता है-उसे कभी कोई दुःख नहीं होता । और उसका ज्ञान इतना बढ़ जाता है कि वह सब चराचर वस्तुओं को जानने लग जाता है । मैं पहले बहुत ही बूढ़ी थी । सो इन्द्र दया करके इस वृक्षके फल खानेको मुझे यहाँ रख गया । देख, मैं इन्हीं फलोंको खाकर ऐसी जवान हो गई हूँ। यह सब सुनकर उमयने कहाबहिन, बिना जाने फलोंको खानेकी मुझे प्रतिज्ञा है । इसलिए मैं तो इन फलोंको हर्गिज नहीं खा सकता । नाहक तुम इनकी इतनी तारीफ करती हो । जो ललाटमें लिखा होगा, वही तो होगा | फिर व्यर्थ अधिक बोलने से लाभ क्या ? उमयकी धीरताको, उसके नियमकी निश्चलताको देखकर वनदेवताने उससे कहा -उमय, तेरी प्रतिज्ञाकी निश्चलताको
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