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विष्णुश्रीकी कथा ।
कि प्रभो, दान कैसा देना चाहिए और किस किसको देना चाहिए ? मुनिराजने तब इस विषयको और भी स्पष्ट करके राजाको समझाया । उन्होंने कहा- न तो बालकको अर्थात अज्ञान अवस्थामें, न भयसे तथा न प्रत्युपकारकी इच्छासे दान देना चाहिए और न नाचनेवाले, गानेवाले तथा हँसी - दिल्लगी करनेवाले भाँड़ आदिकोंको देना चाहिए; किन्तु गृहस्थोंको उचित है कि वे विधिपूर्वक यथा द्रव्य, यथा- क्षेत्र, यथाकाल और यथाशास्त्र योग्य पात्रोंको दान दें । तथा मुनियोंको ऐसा अन्नदान न देना चाहिए जो देखने में अच्छा न हो, विरस हो, सड़-घुन गया हो, चलित रस हो, रोग उत्पन्न करनेवाला हो, झूठा हो, नीच लोगों के योग्य हो, दूसरेके लिए रक्खा हो, निन्दित हो, दुष्टोंका छुआ हो, त्याज्य हो, यक्ष क्षेत्रपालादिके निमित्त रक्खा हो, दूसरे गाँवसे लाया गया हो, मंत्र प्रयोगसे बुलाया गया हो, भेटमें आया हो, देने योग्य न हो, बाजारसे खरीदा गया हो, प्रकृतिसे विरुद्ध हो और ऋतुके अनुकूल न हो । और राजन्, इसके सिवा जो मुनि नये दीक्षित हो, अजान हो, या जो तपसे क्षीण शरीर हो गये हों, या कोई बड़े भारी रोगसे वे पीड़ित हों, जिससे वे तप न कर सकते हों, तो उनका उपचार करना चाहिए - उनकी टहल-चाकरी करनी चाहिए | जिससे वे तप करने योग्य हो जायँ । इसके सिवा करुणादान सब जीवोंको देना चाहिए - सब पर दया करनी चाहिए । यह
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