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विष्णुश्रीकी कथा ।
उसकी चुगली की कि महाराज, सोमशर्मा मंत्री तो अपने पास काठकी तलवार रखा करता है। भला, लोहेकी तलवारके बिना संग्राममें वह सुभटोंको कैसे मारेगा? सच तो यह है-मंत्री आपका सच्चा सेवक नहीं। ग्रन्थकार कहते हैं-दुष्टोंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे अपने प्राणों तकको गँवाकर दूसरेके सुखमें विघ्न करते हैं। मक्खी ग्रासमें पड़कर अपने प्राणोंको खो देती है और खानेवालेको वमन करा देती है । अजितंजय इस दुष्टकी बातको मनमें रखकर कुछ समयके लिए चुप रहा । एक दिन उसने तलवारका प्रसंग छेड़कर राजकुमारोंको अपनी तलवार म्यानसे निकाल कर दिखलाई। राजकुमारोंने उसकी तलवारकी प्रशंसा की । राजाने तब उनकी भी तलवारें निकलवा कर देखी। उसने मंत्रीसे भी कहा कि तुम भी अपनी तलवार मुझे दिखालाओ । मैं देखू कि वह कैसी है ? मंत्रीने राजाकी चेष्टासे उसका अभिप्राय जानकर मनमें विचारा कि यह किसी दुष्टकी करतूत जान पड़ती है। किसीने काठकी तलवारकी बात राजासे कहदी । नहीं तो राजा मेरी तलवारकी परीक्षा क्यों करता? अस्तु, मंत्रीने देव और गुरुका स्मरण कर मन ही मन कहायदि मेरे मनमें देव-गुरुका पका श्रद्धान है तो यह काठकी तलवार लोहमयी हो जाय ! इस विचारके साथ ही मंत्रीने उस तलवारको म्यान सहित राजाके हाथमें दे दिया। राजाने ज्यों ही म्यानसे उसे निकाला, क्या आश्चर्य है कि वह सूर्यके
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