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पद्मलताकी कथा ।
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धीरे धीरे कार्यसिद्धि हो सकती है, कपटसे धीरे धीरे शत्रु भी मारा जा सकता है और पुण्य-कर्म करते रहनेसे धीरे धीरे मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है । ऐसा विचार कर मायाचारीसे ये दोनों ही पिता-पुत्र जैनी हो गये । इन्हें जैनी हुए देखकर वृषभदास बड़ा प्रसन्न हुआ। वह बोला-ये दोनों धन्य हैं जो मिथ्यात्वको छोड़कर सुमार्गमें लग गये । इसी सम्बन्धसे धीरे धीरे वृषभदास और बुद्धदासकी मित्रता भी हो गई। एक दिन वृषभदासने बुद्धदासको निमन्त्रण देकर भोजनके लिए अपने घर बुलाया। ग्रन्थकार कहते हैं-देना और लेना, गुप्त बात कहना और सुनना, तथा खाना और खिलाना, ये छह मित्रताके लक्षण हैं | बुद्धदास भोजन करनेके लिए बैठा तो, पर उसने भोजन किया नहीं। यह देख वृषभदासने उससे पूछा-आप भोजन क्यों नहीं करते हैं ? बुद्धदासने कहायदि आप अपनी लड़कीका विवाह मेरे लड़केके साथ करदें तो मैं आपके यहाँ भोजन कर सकता हूँ। वैसे-बिना किसी प्रकारके गाढ़े सम्बन्धके मैं नहीं जीम सकता। वृषभदासने कहा-बस, इसी छोटीसी बातके लिए इतना आग्रह ? इसकी आप क्यों चिंता करते हैं । मैं तो आज अपनेको बड़ा भाग्यवान् गिनता हूँ, जो आप मेरे घर तो आये । क्योंकि वे नर बड़े ही पुण्य-कर्मा हैं जिनके घर पर मित्र जन आते हैं। आप भोजन तो कीजिए । मैं अवश्य आपका कहना करूँगा। बुद्धदासने तब भोजन किया । कुछ दिनों बाद शुभ मुहूर्तमें
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