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सम्यक्त्व-कौमुदी
इसके बाद राजाने मनमें विचारा-जिनधर्मको छोड़ कर दूसरे धर्मोंमें इतना चमत्कार नहीं है-ऐसी महिमा नहीं हैऐसा प्रभाव नहीं है । ऐसा निश्चय करके वह जिनमंदिरमें गया और वहाँ समाधिगुप्ति मुनिको तथा वृषभदास और जिन दत्ताको नमस्कार कर बैठ गया। मुनिराजसे उसने प्रार्थना कीप्रभो, धर्मके प्रभावसे वृषभदास और जिनदत्ताका उपसर्ग आज दूर हुआ। मुनिराज बोले-राजन्, धर्मके प्रभावसे सब मनोरथोंकी सिद्धि होती है । संसारमें धर्मके सिवा सब अनित्य है। इसलिए धर्म साधन सदा करते रहना चाहिए । देखिए, धन तो पैरोंकी धूलके समान है, जवानी पर्वतमें बहनेवाली नदीके वेग समान है, मनुष्यत्व जलबिन्दुके समान चंचल है, और यह जीवन फेनके समान क्षण विनाशीक है। ऐसीदशामें जो मनुष्य स्थिरमन होकर धर्म नहीं करते वे बुढ़ापेमें केवल पश्चात्ताप ही करते हैं और शोक रूपी अग्निसे जला करते हैं। राजाने पूछा-प्रभो, वह धर्म किस प्रकार है ? मुनि महाराजने कहा-यदि तुम सच्चा सुख चाहते हो, तो प्राणियोंकी हिंसा मत करो, पराई स्त्रीका संग छोड़ो, परिग्रहका परिमाण करो और रागादिक दोषोंको छोड़कर जैनधर्ममें प्रीति करोउसमें दृढ़ श्रद्धान करो। इस धर्मोपदेशको सुनकर संग्रामशरने अपने पुत्र सिंहशूरको राज्य सौंपकर मुनिराजके पास दीक्षा ग्रहण करली । उस सयय वृषभदास सेठ और जिनदत्ताने तथा और और लोगोने भी दीक्षा ग्रहण की। अन्तमें मुनि
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