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मित्रश्रीकी कथा ।
सुपुत्र है। भावार्थ-जिस तरह चन्द्रमाके बिना रात्रिकी सूर्यके बिना प्रभातकी और धर्मके बिना तीनों लोकोंकी शोभा नहीं होती, उसी तरह सुपुत्रके बिना कुलकी भी शोभा नहीं होती । संसारमें परिभ्रमण करते हुए दुखी जीवोंको कविता, सज्जनोंकी संगति और सुपुत्र ये तीन ही वस्तुएँ सुखदायक हैं । अन्यमतवाले भी ऐसा ही कहते हैं कि बिना पुत्रवालेकी गति नहीं होती। यह सुनकर सेठने कहा-ये भोग-विलासादिक सब अनित्य हैं-विनाशीक हैं। जो भोगोंको भोगता हैअनुभव करता है, वह विवेकशून्य है। एक बात और भी है-मैं अब पूरे सत्तर वर्षेका हो चुका, मेरा धर्मसाधनका समय है, यदि मैं ऐसी दशामें विवाह करलूँ तो लोग मेरी दिल्लगी उड़ायेंगे और इस अवस्थामें विवाह करनालोकविरुद्ध भी तो है । देखो, बीमार रहने पर शरीरमें आभूषण पहनना, आपत्ति या शोकके समय लोककी स्थितिका-रीति-रस्मोंका पालन करना, घरमें दरिद्रताका रहना, बुढ़ापेमें स्त्री-संगम करना, ये सब विरुद्ध बातें हैं और सब लोग जानते भी हैं, तो भी मोहके वश होकर उन्हें यह सब करना पड़ता है । मोह बड़ा बलवान है । इसने सबको वशमें कर रक्खें हैं । मतलब यह कि मुझे अब भोगविलासोंकी चाह नहीं, मैं अब विवाह नहीं करूँगा । सेठका ऐसा निश्चय देख जिनदत्ताने कहा-नाथ, राग-मोहादिके वश होकर जो ऐसा करते हैं, उनकी लोकमें अवश्य हँसी होती
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