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सम्यक्त्व-कौमुदी -
माता-पिता आदि बहुत से लोगों से घिरे हुए और हँस रहे इन्द्रदत्तको महाजन लोग दरवाजेके पास लाये तब राजाने उसे हँसते देख कर पूछा- तु क्यों हँसता है ? क्या तू मरने से नहीं डरता ? इन्द्रदत्त कहने लगा- महाराज, भयसे तब ही तक डर है जब तक कि वह आया नहीं है । भय आजाने पर तो उसे सहना ही चाहिए ।
नीतिकारोंका भी यही कहना है। महाराज, एक बात और भी है - जब बालक पितासे दुःखी होता है तब माकी शरणमें जाता है और जब राजासे दुःखी होता है तब महाजनोंकी शरण लेता है । लेकिन जब माता ही विष देने लगी और पिता गर्दन मरोड़ने लगा, महाजन लोग धन देकर खरीदने लगे और राजा प्रेरणा करता है, तब फिर बताइए किससे कहा जाय ?
देखिए नीतिकारने कैसा अच्छा कहा है कि जब मातापिताने अपने बच्चे को बेच डाला, उस पर राजा शस्त्रमहार कर रहा है और देव बलि (भेंट ) चाह रहे हैं तो फिर चिल्लाने ही से क्या होगा ?
aara मैं धीरता पूर्वक मरना चाहता हूँ । राजा इन्द्रदत्तकी बातें सुनकर कहने लगा- इस दरवाजेसे और इस नगरसे भी मुझे कोई मतलब नहीं । जहाँ मैं हूँ वहीं नगर भी हो जायगा । राजाके इस धैर्यको, इन्द्रदत्तके उस विलक्षण साहसको देखकर नगर देवताने दरवाजा बना दिया,
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