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सुयोधन राजाकी कथा ।
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भूषण था। देविका इसकी स्त्री थी। भारतीभूषण भी कवि था । जल्दी कविता करनेका इसमें बड़ा गुण था और इसीलिए संसारमें यह प्रसिद्ध था । एक दिन राजसभामें भारतीभूषण मंत्रीने राजाकी कविताको बहुत ही दूषित कर डाला, उसमें उसने खूब अशुद्धियाँ निकालीं । गरज़ यह कि राजाकी कविताको उसने महज़ गलत साबित कर दिया ।
राजाको इससे बड़ा क्रोध आया। उसने तब भारतीभूषणको बँधवा कर गंगाकी धारमें फिंकवा दिया। कर्म संयोगसे भारतीभूषण धारमें न गिर कर बालूमें गिरा ।
नीतिकार कहते हैं-वनमें, रणमें, शत्रुके सामने, गंभीर समुद्रमें, अग्निमें, जलमें पर्वतकी चोटी पर, चाहे जिस हालतमें हो, जीवोंकी पहले किये हुए पुण्य-कर्म विपत्तिसे रक्षा करते हैं। भयंकर वन पुण्यात्माके लिए मनोहर नगर बन जाता है। सब मनुष्य उसके बन्धु हो जाते हैं । सारी पृथिवी उसके लिए निधि और रत्नोंसे भरपूर है । मतलब यह कि जिन्होंने पूर्व जन्ममें विपुल पुण्य संचय किया है उन्हें संकट कहीं पर नहीं होता-वे सब जगह सुखी रहते हैं। __ भारतीभूषण विचारने लगा-यह सच है कि कवि दूसरे कविको नहीं देख सकता । नीतिकार भी इस विषयमें इससे सहमत हैं, वे भी कहते हैं-सज्जनोंसे दुष्टात्मा कुढ़ता है, विरतसे कामी चिढ़ता है, जागनेवाला आदमी स्वभावहीसे चोरको बुरा मालूम पड़ता है, पापियोंको धर्मात्मा
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