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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुयोधन राजाकी कथा । २९ भूषण था। देविका इसकी स्त्री थी। भारतीभूषण भी कवि था । जल्दी कविता करनेका इसमें बड़ा गुण था और इसीलिए संसारमें यह प्रसिद्ध था । एक दिन राजसभामें भारतीभूषण मंत्रीने राजाकी कविताको बहुत ही दूषित कर डाला, उसमें उसने खूब अशुद्धियाँ निकालीं । गरज़ यह कि राजाकी कविताको उसने महज़ गलत साबित कर दिया । राजाको इससे बड़ा क्रोध आया। उसने तब भारतीभूषणको बँधवा कर गंगाकी धारमें फिंकवा दिया। कर्म संयोगसे भारतीभूषण धारमें न गिर कर बालूमें गिरा । नीतिकार कहते हैं-वनमें, रणमें, शत्रुके सामने, गंभीर समुद्रमें, अग्निमें, जलमें पर्वतकी चोटी पर, चाहे जिस हालतमें हो, जीवोंकी पहले किये हुए पुण्य-कर्म विपत्तिसे रक्षा करते हैं। भयंकर वन पुण्यात्माके लिए मनोहर नगर बन जाता है। सब मनुष्य उसके बन्धु हो जाते हैं । सारी पृथिवी उसके लिए निधि और रत्नोंसे भरपूर है । मतलब यह कि जिन्होंने पूर्व जन्ममें विपुल पुण्य संचय किया है उन्हें संकट कहीं पर नहीं होता-वे सब जगह सुखी रहते हैं। __ भारतीभूषण विचारने लगा-यह सच है कि कवि दूसरे कविको नहीं देख सकता । नीतिकार भी इस विषयमें इससे सहमत हैं, वे भी कहते हैं-सज्जनोंसे दुष्टात्मा कुढ़ता है, विरतसे कामी चिढ़ता है, जागनेवाला आदमी स्वभावहीसे चोरको बुरा मालूम पड़ता है, पापियोंको धर्मात्मा For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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