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अर्हदास सेठकी कथा ।
राजाका जिस पर कोप हो जाता है फिर वह बचता नहीं है । वे स्त्रियाँ बोलीं-नाथ, हमारे भी आज आठ आठ उपवास हो गये । उपवासके दिनोंमें धर्मके कामोंको छोड़कर क्रीड़ाके लिए उपवनमें हम कैसे जायँ ? यह आप ही विचारें । राजाकी ऐसी आज्ञासे हमें क्या मतलब ? जो हमने उपार्जन किया, जो होना होगा, वह होगा। हम उपवनमें न जायँगी। होनहारको कोई याल नहीं सकता । पानीमें डूब जाओ, सुपेरु पर्वतकी चोटी पर जा बैठो, युद्धमें शत्रुको जीत लो, व्यापार, खेती नौकरी, चाकरी, आदि सब कला सीखलो और प्रयत्न करके पक्षियोंकी तरह अनन्त आकाशमें उड़ने लग जाओ, पर जो होना होता है वह तो हो ही कर रहता है-अनहोनी कभी नहीं होती । कोंकी ऐसी ही विचित्रता है । इसलिए हम तो न जायँगी । यह सुनकर सेठने कहा-तुमने जो कुछ कहा वह सच है । ऐसा ही है। उपवासके दिन जिनशास्त्रका श्रवण तथा भक्ति, पूजादि ही करना चाहिए । इसीसे कर्म कटते हैं। वनमें जाकर क्रीड़ा करनेसे-खेलने कूदनेसे नहीं कटते । आचार्य कहते हैं-जिसका मन निश्चल है, व्रतोंमें दृढ़ता है, पाँचों इन्द्रियाँ वशमें हैं, तथा जो आत्मामें लीन रहता है
और हिंसासे दूर रहता है, उसको मोक्षकी प्राप्ति अवश्य होती है। स्त्रियोंने सेठसे कहा-नाथ, आइए आप और हम अपने घरके सहस्रकूट चैत्यालयमें जागरण करें। सेठने कहा-ठीक है । इसके बाद वे सब नाना प्रकार शुद्ध द्रव्य
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