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सम्यक्त्व-कौमुदी
चढ़ जाय, मंत्र, औषधि और अस्त्र-शस्त्रोंसे अपनी रक्षा करे, पर जो होना होता है, वह होकर ही रहता है । इसमें विचार करनेका कोई कारण नहीं। जिनदत्त और अहंदासकी सब बातें चोरने सुनलीं । वह विचारने लगा-जिसके पैरोंको भेड़ियेने खा लिया और कौओंने सिरको चीथ डाला, ऐसे पूर्व कर्मके उदय आने पर समझदार मनुष्य भी क्या कर सकता है ? इसके बाद वह बोला- सेठजी, आप दयाके समुद्र हैं और धर्मात्मा हैं। वृक्षकी तरह बिना कारण ही जगतका उपकार करनेवाले हैं। जो कुछ भी आप करते हैं वह सब परोपकारके लिए । मुझे बड़े जोरसे प्यास लगी है, तब पानी पिलाकर मेरा भी उपकार जिए । आज पूरे तीन दिन हो गये, क्या करूँ प्राण भी नहीं निकलते । यह कह कर वह जिनदत्तके परोपकारकी महिमा सुनाने लगा-जिसके चित्तमें सम्पूर्ण प्राणियों पर दया है, जिसका हृदय दयासे भीगा है, उसीको ज्ञान और मोक्षकी प्राप्ति होती है । जटा रखा लेने, भस्म लगाने और गेरुआ कपड़ा पहनलेनेसे कुछ नहीं होता।
वृक्षोंको देखिए, स्वयं तो वे घाममें खड़े हैं, दुःख सह रहे हैं, पर दूसरोंको छाया करते हैं, और फलते भी हैं तो परोपकार हीके लिए । अपने लिए नहीं । गौएँ भी परोपकारके लिए दूध देती हैं, नदियाँ बहती हैं । मतलब यह कि सजन पुरुष जो कुछ भी करते हैं । वह सब परोपकारके लिए । सेठजी, आप परोपकारी हैं । जान पड़ता है आपका
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