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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुयोधन राजाकी कथा । परम्परासे चले आये हुए आचार्य महाराजका कहना है । इस बातको सुनकर राजा बोला-जिस नगरमें जीव मारे जायँ, उस नगरसे मुझे कोई मतलब नहीं । जहाँ मैं हूँ वहीं नगर है । ऐसे सोनेके गहनेसे क्या प्रयोजन जिससे कान ही टूट जाय। राजाने और भी कहा-जो अपना हित चाहता है उसे हिंसा न करनी चाहिए । नीतिकारोंने भी कहा है कि जो राजा अपने जीवनको, बलको और निरोगताको चाहता है, उसे हिंसा न करनी चाहिए । वल्कि जो दूसरा करे उसे भी मना कर देना चाहिए । और भी कहा है-सुमेरु पर्वतके बराबर सुवर्णदानसे अथवा सम्पूर्ण पृथिवीके दानसे जितना फल होता है उतना फल केवल एक जीवको मरतेसे बचाने मात्रमें हो जाता है । राजाका ऐसा निश्चय जान कर वहाँ महाजन लोग आ पहुँचे और कहने लगे-महाराज, आप कुछ न कीजिए । हम लोग सब कुछ कर लेंगे । यह सुनकर राजा बोला-यह कैसे हो सकता है, क्योंकि प्रजाजनोंके पुण्यपापका छठा अंश राजाको भी तो भोगना पड़ता है । देखो न नीतिकार भी ऐसा ही कहते हैं यथैव पुण्यस्य सुकर्मभाजां षडंशभागी नृपतिः सुवृत्तः । तथैव पापस्य सुकर्मभाजा षष्ठांशभागी नृपतिः कुवृत्तः॥ अर्थात जिस तरह सदाचारी राजा पुण्यात्मा जीवोंके पुण्यमें छठे अंशका भागी है, उसी तरह पापियोंके पापमें भी For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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