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कथा, सो यह अज्ञान कैसा, ताका उत्तर है। आगे कह्या है, यह मिथ्यादृष्टीका आशय अज्ञानभाव卐 रूप है सो ही बंधका कारण है। आगे बाह्यवस्तुकै निश्चनयकरि बंधका कारणपणाका निषेध किया है । 15 आगें कया है, जो मिथ्यादृष्टि अज्ञानरूप अध्यवसायतें अपने आत्माकूं अनेक अवस्थारूप करे है, आगें कया है, जो यह अज्ञानरूप अध्यवसाय जाकै नाहीं, ताकै कर्मबंध नाहीं होय है। आगे शिष्यका प्रभ 卐 5 है, जो यह अध्यवसाय कहा है ताका उत्तर है। आगे का है, जो यह अध्यवसान है याका निषेध है, सो व्यवहार यहीका निषेध है । आगें कया है, जो केवलव्यवहारहीकूं आलंबे है, सो मिध्यादृष्टि है, जातें याका आलंबन अभव्य भी करे है, व्रत, समिति, गुप्ति पार्ले है, ग्यारह अंग पढे है, तोऊ मोक्ष फ न पावै । अभव्य धर्मकी भी सामान्य श्रद्धा करे है, तोऊ ताकै भोगके निमित्त है, तार्ते मोक्षके निमित्त न होय । आगे निश्चयव्यवहारका स्वरूप कया है। आगे शिष्यका प्रश्न है, जो रागादिक- 5
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155 भावनिका निमित्त आत्मा है, कि परद्रव्य है ? ताका उत्तर है । ऐसें बंधाधिकार पूर्ण कीया है गाथा एकावन । यामैं टीकाकारकृत कलशरूप काव्य सतरा हैं ।
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आगें मोक्षाधिकार है । तहां, प्रथमही मोक्षका स्वरूप कर्मबंधन छूटना है। सो कोई बंधका 5
स्वरूपही जानि संतुष्ट होय, जो ऐसेंही बंधतें छूटियेगा ताका निषेध है, जो बंध छेदेविना छूटे
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नाहीं ऐसें कया है । आगे बंधकी चिंता किये भी न छूटे है ऐसें कहा है। बंध छेदे ही मोक्ष है। फ्र
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आगे बंधतें छुटनेका कारण कया है । आगे शिष्य पूछधा है, जो बंधका छेद काहिकरि कीजिये ताका उत्तर हैं, जो कर्मबंधक छेदनेकूं प्रज्ञा करण है, शस्त्र है। आगे कया है, जो प्रज्ञारूप करणतें
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आत्मा अर बंध दोऊकूं न्यारे न्यारे करि आत्माकूं प्रज्ञाहिकरि ग्रहण करना, बंधकूं छोड़ना । आगे का है, जो आत्मा चैतन्यमात्र ग्रहण करना, तहां चेतना दर्शनज्ञानरूप है, तिनिविना नाहीं है । आगे का है, जो आत्माशिवाय अन्यभावका त्याग करना, ऐसा पंडित कौन है ? जो परके 5 rai जाणिक ग्रहण करें, अर्थात् परके भावकूं नाहीं ग्रहण करें। आगे का है, परद्रव्यकूं ग्रहण करे है सो अपराधी है, बंधन में पडे है । अपराध न करे सो बंधन में न पडे है। आगे अपरा
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