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श्रद्धा का लहराता समन्दर
सौरभ का समुद्र
-स्व. उपाध्याय श्री कस्तूरचन्द जी महाराज
सन्त अगरबत्ती की तरह स्वयं जलकर दूसरों को सौरभ प्रदान करता है और मोमबत्ती की तरह प्रज्ज्वलित होकर दूसरों को आलोक बाँटता है। उसका जीवन विश्व कल्याण के लिए सर्वात्मना समर्पित होता है। पर वह सम्मान और सत्कार का स्वयं इच्छुक नहीं होता किन्तु समाज उसके गुणों से अनुप्राणित होकर वह सन्त का सम्मान कर अपने आपको गौरवान्वित करता है।
उपाध्याय पुष्कर मुनि जी श्रमण संघ के एक वरिष्ठ सन्तरत्न हैं। जिन्होंने अपना जीवन जन-जीवन के उत्थान के लिए समर्पित किया है। हजारों मील की उन्होंने यात्राएँ की हैं भारत के विविध अंचलों में परिभ्रमण कर जन-जीवन में अभिनव चेतना का संचार किया है। यही कारण है कि समाज का श्रद्धालु मानस उनके प्रति भक्ति भावना से विभोर होकर नत है।
उपाध्याय पुष्कर मुनि जी पचहत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। उनका यह प्रवेश ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से बहुत मंगलप्रद है। उनका स्वास्थ्य पूर्ण स्वस्थ रहेगा। उनकी जप व ध्यान साधना में अभिवृद्धि होगी। उनकी गौरव गरिमा दूज के चांद की तरह निरन्तर बढ़ती रहेगी और आपके शिष्य समुदाय में भी वृद्धि होगी।
-(७४वीं जन्म जयन्ती के अवसर पर)
• अहंकार में ऊँचे चढ़े नयन, कपट में डूबा मन और दूसरों को दुःख देकर कमाया हुआ धन तीनों ही नाश करने वाले हैं।
पाप की परिभाषा पुस्तक से नहीं, अपने मन से पूछो। जो काम करते समय तुम्हें भय, लज्जा और बैचेनी का अनुभव हो, समझ लो वह पाप है।
अन्याय और अनीति की कमाई से कोई धनवान भले ही बन जाये परन्तु वह सुख-चैन से नहीं जी सकता।
● संसार में सुखी वह है, जो मेहनत की कमाई खाता है और भाग्य पर भरोसा रखता है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
Sam AdubatorMIN
हे श्रमण श्रेष्ठ हे ! ज्ञानधाम ! लो मेरे शत-शत प्रणाम
-स्व. प्रवर्तक श्री शान्तिस्वरूप जी महाराज (मेरठ)
हे श्रमण श्रेष्ठ, हे ज्ञानधाम हे कृपा सिन्धु लोकाभिराम । अध्यात्मयोगी निष्काम राम! मेरे लो शत-शत प्रणाम ॥
कहते हैं तीर्थराजपुष्कर, हैं सबके दुख को हर्ता । सब ताप मिटाता प्राणी के मनवांछित है पूरणकर्ता ॥ करता होगा लेकिन हमने तो नहीं आज तक है देखा। चलता-फिरता यह तीर्थराज "पुष्कर" तो सबने है देखा ॥ दिन-रात निरन्तर आत्मभाव का अमृत पान कराते हो। सुधासिक्त वाणी से प्रतिपल, मृत को अमर बनाते हो ॥ हे श्रमण श्रेष्ठ, हे ज्ञानधाम
क्यों न बनायेंगे जबकि, अन्तर् में, ले ब्रह्मतेज आया। वीर- प्रस्विनी के तेजस्वी कण से निर्मित की काया ॥ जबकि हो तुम सूर्य-सूनु, तो क्यों न सूर्य कहलाओगे ? हे बाली के बाल वाली सम क्यों न अजेय हो जाओगे ? जो है जगत्पूज्य अम्बा-लाल, न वो योगी होवे ? जो है अमृतपुत्र भला वह भी जग का रोगी होवे ? हे श्रमण श्रेष्ठ, हे ज्ञानधाम
तुमको पाकर सत्य अहिंसा सदाचार को प्राण मिला। विनय सरलता समता करुणा अनासक्ति को मान मिला। तप संयम स्वाध्याय ध्यान का मानो विमल उद्यान खिला । दुख सागर से पार होने को आर्त मानव को यान मिला ॥ हे महाप्राण ! हे धर्मदिवाकर !! अग जग का दुख हरने को। अनगिनत काल तक रहो यहाँ पृथ्वी ही देवमू करने को। हे श्रमण श्रेष्ठ, हे ज्ञानधाम
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