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XVIII
पुण्य-पाप तत्त्व फलदायक है। अत: मुक्ति-प्राप्ति में यह लेशमात्र भी बाधक नहीं होता है, अपितु सहायक ही होता है। इससे किसी भी जीव को कभी भी हानि होना संभव नहीं है। यह नियम है कि पुण्य कर्म का उपार्जन आत्मपवित्रता से, आत्म-विकास से, आत्मिक गुणों की वृद्धि से संयम, त्याग, तप से होता है, परंतु पुण्य कर्म के उदय से आत्म-विकास व गुणों की वृद्धि होती हो, ऐसा नियम नहीं है। कारण कि पुण्य कर्म से शरीर, इन्द्रिय आदि साधन सामग्री मिलती है। प्राप्त साधन सामग्री का दुरुपयोग एवं सदुपयोग दोनों हो सकते हैं। पुण्य से प्राप्त शरीर, इन्द्रिय आदि का उपयोग विषयकषाय के सेवन में हिंसा, झूठ, चोरी आदि दुष्प्रवृत्तियों में अर्थात् पापों में करना पुण्य कर्म का दुरुपयोग है। इससे पुण्य क्षीण होता है एवं पाप कर्मों में वृद्धि होती है, जो अहित, दु:ख एवं संसार-परिभ्रमण का कारण है। इसमें दो पुण्य कर्म का नहीं है, अपितु उसके दुरुपयोग का है। पुण्य से प्राप्त सामग्री शरीर आदि में जीवन-बुद्धि रखना, इनसे विषय-सुख भोगना इनका दास होना है, इनके अधीन होना है। आत्मा का हित दासता से, पराधीनता से मुक्त होने में है। जो पुण्य से प्राप्त सामग्री का उपयोग विषय-कषाय सेवन में न करके सेवा-साधना में करता है, वह इनकी दासता में आबद्ध नहीं होता है, इनसे ऊपर उठ जाता है, स्वाधीन व मुक्त हो जाता है।
तात्पर्य यह है कि पुण्य कर्म से प्राप्त सामग्री के सदुपयोग से पुण्य तत्त्व पुष्ट होता है जिससे पुण्य कर्म के उपार्जन में, अनुभाव में वृद्धि होती है। इस प्रकार पुण्य तत्त्व से पुण्य कर्म में और पुण्य कर्म के सदुपयोग से पुण्य तत्त्व में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है जिससे आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास होता जाता है। अत: महत्त्व पुण्य तत्त्व एवं पुण्य कर्म के सदुपयोग का है। इस तथ्य को सदैव स्मरण रखना है कि पुण्य कर्म से प्राप्त शरीर आदि साधन सामग्री है; साधन, साध्य एवं जीवन नहीं है। इन्हें साध्य व जीवन मानना भयंकर भूल है, अपना घोर अहित करना है। इस भूल के रहते मुक्ति की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है। अत: साधक का हित पुण्य