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प्राक्कथन
XVII भावों की ही है। भावों की अशुद्धि पाप कर्मों के बंध की और भावों की विशुद्धि पाप कर्मों के निरोध, निर्जरा व मोक्ष की तथा पुण्योपार्जन की हेतु हैं। बंध व मोक्ष के मुख्य हेतु शुद्ध-अशुद्ध भाव ही है।
जिस भाव व उसकी क्रियात्मक प्रवृत्ति से आत्मा का पतन हो, उसे पाप तत्त्व कहा है। आत्मा का पतन राग, द्वेष आदि दूषित भावों से एवं प्राणातिपात, मृषावाद आदि दुष्प्रवृत्तियों से होता है। अत: राग, द्वेष, प्राणातिपात आदि दोष व दुष्प्रवृत्तियाँ पाप हैं। इन्हीं पापों के परिणाम से पाप कर्मों का उपार्जन, आस्रव व बंध होता है। इस प्रकार पापमय परिणाम, पाप प्रवृत्ति, पाप कर्मों का आस्रव व बंध आदि पाप के विभिन्न रूप (प्रकार) जीव के गुणों के घातक, भवभ्रमण कराने वाले, अकल्याणकारी, संसारवर्द्धक एवं दु:खद होते हैं। अत: ये सब हेय व त्याज्य हैं।
____ पाप तत्त्व के विपरीत पुण्य तत्त्व है। जिससे आत्मा का उत्थान हो, आत्मा पवित्र हो, वह पुण्य है। आत्मा की अपवित्रता का हेतु पाप व दोष हैं। दोषों में, कषायों में कमी होने से भावों में विशुद्धि या पवित्रता होती है जिससे क्षमा, सरलता, विनम्रता, करुणा आदि जीव के स्वाभाविक गुणों में वृद्धि होती है तथा ये गुण दया, दान, सेवा, स्वाध्याय आदि सद्प्रवृत्तियों के रूप में प्रकट होते हैं, इन्हें ही पुण्य तत्त्व कहा गया है जो आध्यात्मिक विकास का सूचक है। आध्यात्मिक विकास पुण्य तत्त्व का आंतरिक फल है। पुण्य तत्त्व से पुण्य कर्म की प्रकृतियों का उपार्जन होता है जिससे शरीर, इन्द्रिय, मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति आदि सामग्री मिलती है अर्थात् भौतिक विकास होता है। यह पुण्य तत्त्व का बाह्य फल है।
___ पाप में कमी होने से आत्मा पवित्र होती है। आत्मा की पवित्रता जीव का स्वभाव है। अत: पुण्य कर्म का उपार्जन स्वभाव से, निसर्ग से स्वत: होता है। इसके लिये पाप के निरोध व क्षय के अतिरिक्त अन्य किसी प्रयत्न की अपेक्षा नहीं है। पुण्य कर्म पूर्ण रूप से अघाती कर्म है और शुभ