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XVI
पुण्य-पाप तत्त्व पुण्यकर्म धर्म नहीं हो सकता, इसमें दो मत नहीं हो सकते। कर्म पुद्गल व अजीव है, अत: जीव के स्वभाव-विभाव से इसका कोई सीधा संबंध नहीं है। आत्मा के स्वभाव-विभाव का आधार उसके सद्गुण एवं दुर्गुण होते हैं। सद्गुण सद्प्रवृत्ति के, दुर्गुण दुष्प्रवृत्ति के जनक हैं। दया, दान, करुणा, नम्रता, मृदुता आदि गुणों का क्रियात्मक रूप सद्प्रवृत्तियाँ या शुभयोग हैं जो कषाय की कमी से होते हैं। अत: ये स्वभाव के द्योतक होने से धर्म व पुण्य दोनों हैं। इस दृष्टि से पुण्य तत्त्व (शुभ व शुद्ध अध्यवसाय) व धर्म एक भी हैं। इसी प्रकार अनेक विवक्षाओं से पुस्तक में यथाप्रसंग विचार-विमर्श व मंथन किया गया है। इससे कितना नवनीत प्राप्त हुआ है, इसका निर्णय पाठक स्वयं करेंगे।
___ पुस्तक में जिज्ञासाओं के समाधान के लिए कुछ तथ्यात्मक सिद्धांतों एवं प्रमाणों को एकाधिक बार दोहराना पड़ा है। इसे पुनरुक्त दोष न समझा जावे। विषय के प्रतिपादन को स्पष्ट एवं पुष्ट करने के लिए यथाप्रसंग परिभाषाओं एवं प्रमाणों के उद्धरणों को बार-बार प्रस्तुत करना आवश्यक था। ऐसा न करने पर उस प्रसंग में विषय का विवेचन अधूरा रह जाता जिससे सम्यक् समाधान नहीं हो सकता था। अत: विषय के सर्वांगीण विवेचन के लिए ऐसा किया गया है। पाठकों से निवेदन है कि प्रकृत विषय पर जो प्रमाण दिये गए हैं, उन पर निष्पक्ष होकर गहन-चिंतन-मनन करें और वस्तु-तथ्य का सम्यक् निर्णय करें।
प्राणिमात्र का हित राग, द्वेष, विषय, कषाय, मोह आदि दोषों से रहित होने में, अपने स्वभाव को प्रकट करने में है, शेष सब व्यर्थ है; प्रस्तुत पुस्तक का लक्ष्य भी यही प्रतिपादित करना रहा है। अत: हम वाद-विवाद से ऊपर उठकर विवेच्य-विषय से अपने विकारों को घटायें, सद्गुणों को प्रकट करें, यही नम्र निवेदन है।
वस्तुत: जीव के हित-अहित का कारण भावों की विशुद्धि-अशुद्धि ही है। मन, वचन एवं काया की सद्प्रवृत्तियों तथा दुष्प्रवृत्तियों में मुख्यता