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116... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
कम हो जाते हैं। मन्दिर के चारों दिशाओं में रिक्त स्थान का फल इस प्रकार हैरिक्त दिशा
फल
कार्य सम्पादन के लिए उत्साह वृद्धि आग्नेय
महिलाओं को स्वास्थ्य हानि दक्षिण
सर्वत्र कुफल नैऋत्य
अशुभ पश्चिम
अशुभ वायव्य
मध्यम उत्तर
ऐश्वर्य लाभ ईशान
विद्या लाभ
रंग संयोजना
मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण होने के पश्चात उसके भीतर और बाहर ऐसी रंग योजना की जानी चाहिए कि वह बाहर से आकर्षक एवं शांति प्रदायक हो तथा भीतर से ध्यान योग क्रिया में सहायक और आत्मानुभूति में पुष्ट निमित्त हो। जिस प्रकार वाटिका के पुष्प देह की प्रत्येक रोमावलि को आह्लादित कर देते हैं उसी प्रकार मंदिर का वातावरण भी प्रसन्न करने वाला होना चाहिए। रंग योजना इस प्रक्रिया का अविभाज्य अंग है।
जैन ग्रन्थों में जाप आदि करते समय वस्त्र, माला, पुष्प, आसन इत्यादि के रंगों का स्पष्ट विवेचन प्राप्त होता है।
सामान्यतया मन्दिर के भीतरी भागों में अधिक गाढ़े रंगों का प्रयोग न करें। काला, डार्क चाकलेटी, डार्क नीला, डार्क ब्राउन, डार्क ग्रे कलर कभी भी इस्तेमाल न करें। गुलाबी, आसमानी, सफेद, पीला, केसरिया, हरा इत्यादि रंग यथास्थिति प्रयोग करें। __छत का रंग सफेद या एकदम फीका रखें। मन्दिर का शिखर श्वेत रंग का रखना चाहिए। यही रंग सर्वाधिक प्रभावकारी है। इस तरह सभी प्रकार की रंग संयोजनाओं में यही प्रमुख लक्ष्य रखें कि उनसे वातावरण में शान्ति की स्थापना हो।