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174... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
यदि व्यसन युक्त शिल्पी से प्रतिमा निर्माण करवाने का मूल्य निश्चित नहीं किया जाये तो उसके द्वारा देवद्रव्य का भक्षण हो सकता है। देवद्रव्य का भक्षण करने से अशुभ कर्म का बन्ध होगा, जिससे नरकादि गतियों में अनन्त भावों तक परिभ्रमण करता रहेगा। इसलिए अयोग्य शिल्पी की नियुक्ति मूल्य निश्चित किये बिना नहीं करनी चाहिए।
___ इसी चर्चा को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं कि जिस प्रकार अत्यधिक बीमार व्यक्ति को अपथ्य भोजन नहीं देना चाहिए क्योंकि वह भोजन उसके लिए हानिकारक है उसी प्रकार भलीभाँति विचारकर जो कार्य परिणाम स्वरूप सबके लिए दारूण हो उसे नहीं करना चाहिए।
यदि जिनबिम्ब का मूल्य जिनाज्ञा के अनुसार चुकाने पर भी छद्मस्थता के कारण देवद्रव्य के रक्षण के बदले भक्षण हो जाये तो भी उक्त विधि के अनुरूप कार्य करने वाला दोषी नहीं होता है, क्योंकि आज्ञा का आराधक होने से उसका परिणाम शुद्ध है। श्रावक और शिल्पी का पारस्परिक व्यवहार
षोड़शक प्रकरण में कहा गया है कि यदि प्रभावशाली जिनबिम्ब का निर्माण करवाना हो तो मूर्ति निर्माता और शिल्पी का पारस्परिक सम्बन्ध मधुर रहना चाहिए। यदि शिल्पी का मन थोड़ा भी विचलित होता है तो प्रतिमा के प्रभाव में न्यूनता आ सकती है।
यदि प्रतिमा उत्तम लक्षणों से युक्त हो तो उसके दर्शन मात्र से विशिष्ट भावोल्लास उत्पन्न होता है। यह उल्लासभाव आठों ही कर्मों की निर्जरा में सहायक बनता है। देशविरति, सर्वविरति एवं सर्वांग्मुक्ति के बाद हृदय में जागृत करता है। नयनाभिराम प्रतिमा के दर्शन ही भाव जगत एवं विचार जगत को शांत एवं निर्मल बनाते है। . यदि श्रावक और शिल्पी के विचारों में मतभेद न हो, शिल्पी-श्रावक के उचित व्यवहार से प्रसन्न हो तो वह जिनबिम्ब में ऐसे भावभरे प्राण उड़ेल सकता है कि प्रतिमा के दर्शन आदि करते हुए दिल नाच उठे। इसलिए श्रावक और शिल्पी का परस्पर अटूट मेल रहना चाहिए। यदि थोड़ी-सी भी खटास आ जाये तो प्रतिमा विशिष्ट फल संपन्न नहीं बन सकती। उस प्रतिमा में तथाविध सौम्य भाव आदि उभर नहीं सकते, जिसके परिणाम स्वरूप दर्शक के हृदय में भी