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प्रतिष्ठा सम्बन्धी मुख्य विधियों का बहुपक्षीय अध्ययन ...499 दिशा से आरम्भ कर मध्य में समाप्त करने का विधान करते हैं। स्पष्ट है कि सर्वप्रथम पूर्व दिशा में फिर आग्नेय कोण में इस सृष्टि क्रम से आठवीं ईशान में और नौवीं शिला मध्य में आती है।
इसी तरह अष्टशिलाओं का क्रम भी माना गया है। वर्तमान में प्राय: पाँच या नवशिला की प्रवृत्ति प्रचलित है।20
शिलान्यास के वास्तु स्थान- शिलाएँ निम्न स्थानों के निर्माण में रखी जाती हैं- माल भरने के गोदाम, राज्याभिषेक आदि के मंडप, संन्यासी मठ, उपाश्रय, पाकशाला, सर्वजाति के निवास गृह, नाटकशाला, देवमंदिर, सभामंडप, किला, नगर के द्वार आदि। इन स्थानों का निर्माण करवाते समय शिलान्यास विधि करनी चाहिए।21
शिलान्यास कितना नीचे करें? - शिलान्यास वास्तुभूमि के ऊपरी तल से कितना नीचे किया जाए, यह शिल्पियों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। अपराजितपृच्छा के निर्माण काल तक देवालय के वास्तु में जलान्त या पाषणान्त खात करके कूर्म विन्यास की परिपाटी प्रचलित हो चुकी थी जो आज भी प्रवर्तित है। गृहवास्तु के शिलान्यास में इतना गहरा खोदने की आवश्यकता नहीं है। इस वास्तु की भूमिशुद्धि के लिए पुरुष प्रमाण खड्डा खोदने का विधान है और उतना ही नीचे शिलान्यास करना चाहिए।22
शिलाओं का ढाल किस तरफ हो?- शिलान्यास में शिलाएँ किस दिशा की ओर ढलती हुई रखनी चाहिए? शिल्पियों को पहले से ही निश्चित करके फिर न्यास करना चाहिए, क्योंकि विधिपूर्वक स्थापित करने के बाद शिलाओं को चलायमान करना अशुभ है। शिलाओं का झुकाव (ढाल) पूर्व
अथवा उत्तर दिशा की तरफ शुभ माना गया है। वास्तु का द्वार पूर्व तरफ हो तो शिला की ढाल पूर्व दिशा में और उत्तर तरफ हो तो उत्तर दिशा में रखनी चाहिए। वास्तु का द्वार पश्चिम में हो तो शिला का ढाल उत्तर में और दक्षिण में हो तो पूर्व में रखनी चाहिए।23
शिला स्थापना सम्बन्धी जन मान्यताएँ- शिला स्थापना के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की मान्यताएँ देखी जाती हैं। हिन्दू मान्यता है कि यह धरती कूर्म की पीठ पर टिकी हुई है। कूर्म पृथ्वी और जल दोनों पर रहता है और मुख्य रूप से जलतत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है। कूर्म शिला को मुख्य शिला के रूप में स्थापित करने पर वह जिनमंदिर को भी सम्यक् रूप से अपने ऊपर धारण करती