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प्रतिष्ठा विधानों के अभिप्राय एवं रहस्य ... 537
आजकल इस विधान का प्रभुत्व इतना बढ़ गया है कि दीपावली आदि पर्व विशेष के दिन भी प्रभु के प्रथम दर्शन करने - करवाने की बोलियाँ बोली जाती हैं। आधुनिक विधिकारकों के अनुसार 'अणुजाणह मे भयवं दंसणं देहि' ऐसा मन्त्रोच्चार करते हुए मुख्य द्वार खोला जाता है। फिर लाभार्थी परिवार का एक सदस्य मन्दिर का कचरा निकालता है। उसके बाद उपस्थित सभी जन सामूहिक दर्शन करते हैं।
न्यास एवं सकलीकरण क्यों किया जाना चाहिए ?
न्यास और सकलीकरण तांत्रिक साधना के प्राथमिक चरण हैं। वस्तुत: तंत्र साधना का मूलभूत उद्देश्य शक्ति को प्राप्त करना होता है । पुरुषार्थ चाहे आत्म विशुद्धि के लिए हो या लौकिक उपलब्धियों के लिए, अन्तरंग शक्ति को जागृत करना आवश्यक है। इस शक्ति के जागृत होने पर उसका सम्यक दिशा में नियोजन करना और भी अधिक जरूरी है। किन्तु जब शक्ति का उपयोग कर्ममल के शोधन के लिए अथवा लोकमंगल के लिए न करके वैयक्तिक क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए मारण, मोहन, स्तम्भन, उच्चाटन आदि षट्कर्मों के हेतु किया जाता है तो उसके भयंकर दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। शक्ति, शक्ति है वह कल्याणकारी भी हो सकती है और विनाशकारी भी । अतः इसके नियोजन में अत्यधिक सावधानी रखनी होती है।
जिस प्रकार विद्युत करंट से बचने के लिए तत्सम्बन्धी साधनों पर रक्षा कवच (इन्स्यूलेशन) आवश्यक होता है उसी प्रकार तंत्र साधना में रक्षा कवच के रूप में न्यास और सकलीकरण अनिवार्य है। इस विषय में जैनाचार्यों का भी स्पष्ट निर्देश है कि न्यास एवं सकलीकरण के बिना मन्त्र साधना या जाप साधना आदि नहीं करनी चाहिए।
न्यास अर्थात स्थापना करना अथवा शरीर के तन्त्र को चैतन्यमय और पवित्रमय बनाना है। यह न्यास बायें हाथ से शरीर के प्रमुख पाँच अंगों पर बीज मन्त्र पूर्वक किया जाता है। न्यास को तत्त्व मुद्रा से करने का विधान है। अंगुष्ठ के ऊपर अनामिका रखने से तत्त्व मुद्रा बनती है । मतान्तर में दाहिने हाथ से अथवा दोनों हाथ से भी न्यास करने की प्रथा है। 16
जैनाचार्यों की मान्यतानुसार बीजाक्षरों से युक्त पंचपरमेष्ठी के न्यास द्वारा जो मान्त्रिक रक्षा कवच निर्मित किया जाता है, वह मंत्र अथवा मंत्र देवता के