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सम्यक्त्वी देवी-देवताओं का शास्त्रीय स्वरूप ...593
नाम का उल्लेख किया है तथा 10वीं शती के आदिपुराण में भी इस विषयक वर्णन प्राप्त होता है। यदि अस्तित्व की अपेक्षा विचार करें तो तीर्थंकर पुरुषों की परम्परा अनादि निधन होने से शासन देव-देवियों की अवधारणा भी उतनी ही प्राचीन है।
यदि इस विषय में तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में परस्पर कहीं-कहीं इनके नाम, वाहन, अस्त्र आदि को लेकर भिन्नता भी है और एक परम्परा के आचार्यों में भी मत भेद हैं।
यदि जैन शिल्प के अनुसार इसका परिशीलन करें तो दसवीं शती में कर्नाटक के शिल्पकारों को इसका पूर्ण रूप से ज्ञान था अत: कहीं न कहीं इनका अस्तित्व उससे पूर्व ही लोक व्यवहार में आ चुका था और यह लगभग वैदिक संस्कृति का प्रभाव था। यद्यपि देवी-देवताओं का उल्लेख तो आगमों में भी प्राप्त होता है जैसे कि कल्पसूत्र में सिद्धार्थ देव का महावीर स्वामी की सेवा में रहने का विशेष वर्णन प्राप्त होता है और वह उनका यक्ष भी है पर वहाँ उनका उल्लेख इस रूप में नहीं है।
• जिनालय में कौनसे शासन देवी-देवताओं की स्थापना करनी चाहिए?
पूर्व परम्परा के अनुसार मूलनायक परमात्मा के शासन देव-देवी की स्थापना करनी चाहिए। प्रश्न हो सकता है कि मन्दिर में अनेक जिन बिम्ब होते हैं, फिर उनके शासन देव-देवियों की स्थापना क्यों नहीं? इसका समाधान यही है कि मूलनायक भगवान के यक्ष याक्षिणी की स्थापना करने से शेष सभी की स्थापना हो जाती है।
आजकल के मन्दिरों में अधिकतर चक्रेश्वरी, पद्मावती या सिद्धायिका देवी की मूर्ति तथा देवों में लगभग गोमुख, भोमियाजी, भैरूजी, घंटाकर्ण, मणिभद्र देव आदि की मूर्तियाँ स्थापित करते हैं, किन्तु मूलनायक परमात्मा के शासन देवी-देवताओं की स्थापना नहीं भी की जाती है, ऐसा क्यों? प्रतिष्ठाचार्यों एवं विधिकारकों के लिए यह अन्वेषणीय है। भले ही बढ़ रही श्रद्धा के कारण पद्मावती देवी आदि की स्थापना की जाए, किन्तु मूलनायक भगवान के शासन देवी-देवता की स्थापना भी करनी चाहिए।
• शासन देवी-देवता की स्थापना कहाँ करनी चाहिए?