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662... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन चतुर्विंशति पट : ऐसा पट्ट, जिसमें चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हों। चतुस्की : खांचा, चौकी, चार स्तम्भों के मध्य का स्थान, चत्वर। चतुरस्र : वर्गाकार, सम चौरस, चतुष्किका। चण्ड : शिव का गण, जिसके द्वारा स्नात्रजल उसके मुख तक जाकर
पीछे गिरता है। इससे जल उल्लंघन का दोष नहीं लगता है। चन्द्रशाला : खुली छत। चन्द्रावलोकन : खुला भाग, जालीदार गोख (चन्द्र की किरण पड़े इस प्रकार
का खुला गवाक्ष)। चन्द्रिका : आमलसार के नीचे औंधे कमल की आकृति वाला भाग। चन्द्र शिला : सबसे नीचे का अर्धचन्द्राकर सोपान। चापाकार : धनुष के आकार का मंडल। चार : जिसमें पॉव-पॉव सोलह बार बढ़ाया जाता है ऐसी संख्या। चूर्ण : चूना चैत्य : देव प्रतिमा। चैत्य गवाक्ष : वक्र कार्निस (कपोत) से आरम्भ होने वाला एक ऐसा प्रक्षिप्त
भाग जो तोरण के नीचे खुला होता है, चैत्य वातायन, कुडू । चैत्यालय : मन्दिर, देवालय। छन्दस : तल विभाग
: छदितट प्रक्षेप, छज्जा। जगती : ऐसा पीठ जो सामान्यत: गोटेदार होता है, पीठिका, प्रासाद
की मर्यादित भूमि, प्रासाद का ओटला। जंघा : प्रासाद की दीवार की सातवाँ थर, मन्दिर का वह मध्यवर्ती
भाग जो अधिष्ठान से ऊपर और शिखर से नीचे होता है। जाड्यकुम्भ : पीठ के नीचे का बाहर निकलता गलताकार थव, पीठ
(चौकी) का सबसे नीचे का गोटा। : जाल, जालीदार खिड़की, जाली जो सामान्यत: गवाक्ष या
शिखर में होती है, तराशी हुई बारी। जीर्ण तल्प : शय्या, आसन।
छाद्य
जालक
: पुराना