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प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों का ऐतिहासिक...
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में बतायी गयी सामग्री को सामने रखकर सभी विधिकारक प्रतिष्ठाओं एवं महापूजाओं के विधि-विधान करवाते हैं। आधुनिक विधियाँ किन विधिकारकों के द्वारा विकृत हुई, इस यथार्थ को यदि समझ लें तो उक्त पुस्तकोक्त सामग्री विषयक आग्रह अवश्य छूट सकता है | 4
पूर्वकालीन प्रतिष्ठाओं और उसके फल के विषय में लौकिक कल्पनाएँ
पूर्वकाल में प्रतिष्ठाएँ अत्यन्त सात्त्विक और सुख साध्य पूर्ण होती थीं। जिनालय का कार्य सम्पूर्णता की ओर होने पर शुभ समय में प्रतिमा का निर्माण करवाया जाता और जिनबिम्ब तैयार हो जाने के पश्चात दस दिनों के अन्तराल में ही उसकी प्रतिष्ठा हो जाती थी।
यदि गृहस्थ किसी एक तीर्थंकर विशेष की प्रतिष्ठा करवाता तो निकटवर्ती गाँवों में भी उसकी सूचना पहुँच जाती । यदि उस क्षेत्र के अतीत, वर्तमान या अनागत चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा करवायी जाती, तब कुछ विशेष आकर्षण बढ़ता था और संघ समुदाय एकत्रित होता था । यदि भरत आदि पन्द्रह क्षेत्रों के सभी तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ विराजमान की जातीं, तब सर्वाधिक संघ समुदाय उपस्थित होकर अत्यन्त भावोल्लास एवं अद्भुत महोत्सवपूर्वक प्रतिष्ठा विधि का आयोजन करना था। इस विषय में बहुश्रुत आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है कि प्रतिष्ठा तीन प्रकार की होती है। उनमें अनुक्रम से 1. व्यक्ति प्रतिष्ठा कनिष्ठ, 2. क्षेत्र प्रतिष्ठा मध्यम और 3. महाप्रतिष्ठा उत्कृष्ट कही जाती है। यहाँ प्रतिष्ठा के तीनों भेद विधि-आश्रित नहीं है परन्तु प्रतिमाओं की संख्या के अनुसार है। आजकल की प्रतिष्ठाओं में प्रतिमाओं की संख्या को लेकर नहीं बल्कि जनसंख्या एवं आवक की दृष्टि से प्रतिष्ठाओं को जघन्य और उत्कृष्ट माना जाता है, जो यथार्थ नहीं है ।
वर्तमान में लोगों की मानसिकता ऐसी बन गई है कि प्रतिष्ठा होने के पश्चात प्रतिष्ठा कारक व्यक्ति, संघ अथवा गाँव की उन्नति या अवनति प्रतिष्ठा के फल रूप में मानी जाती है किन्तु यह मान्यता उचित नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि प्रतिष्ठा कार्य के प्रारम्भ में होने वाले शुभाशुभ निमित्तों को ध्यान में रखना चाहिए और प्रतिष्ठा के कार्य में निरन्तर विघ्न आते हों तो उस समय प्रतिष्ठा सम्बन्धी कार्य स्थगित कर देने चाहिए, जिससे अशुभ परिणाम के लिए