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544... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
मूर्च्छा, कम्पज्वरी, हैजा, प्लेग आदि रोगों को भी दूर करने में सहायक है ।
दूसरे प्रयोग के अनुसार यदि हकलाने वाला व्यक्ति प्रतिदिन शंख का जल पीने लगे तो कुछ समय में उसे अवश्य लाभ होता है। शंख बजाने से कई मानसिक समस्याओं का निवारण भी होता है।
बलिप्रक्षेपण क्यों और किसे?
प्रतिष्ठा, ध्वजारोहण, महापूजन, वर्षगांठ आदि मांगलिक विधानों में दस दिशाओं के अधिपति देव, नवग्रह देव एवं अन्य देवी-देवताओं के सम्मानार्थ और सर्व प्रकार के मंगल के रक्षणार्थ बलि क्षेपण किया जाता है।
संस्कृत हिन्दी कोश के अनुसार बलि का सामान्य अर्थ है - आहुति, भेंट, चढ़ावा 24 जैन परम्परा में भेंट या चढ़ावे के रूप में बलि प्रक्षेपण करते हैं। अन्य परम्परा में मूर्ति पूजा एवं देवमूर्ति पर चढ़ाया नैवेद्य भी बलि कहा जाता है। यहाँ यह अर्थ ग्राह्य नहीं है ।
बलि सामग्री के रूप में चावल, जौ, गेहूँ, मूंग, वाल, चना और चवला अथवा सन, कुलथी, मसूर, जौ, उड़द, कंगु और सरसों- इन सात धान्यों का उपयोग किया जाता है।
देवी-देवताओं को जो धान्य प्रिय होते हैं उनके तुष्टिकरण हेतु उन्हीं धान्यों का ही प्रक्षेपण करते हैं। देवता कवलाहार नहीं करते, किन्तु अवधिज्ञानी होने से बलिदाता के पूजा प्रधान भावों को ग्रहण कर लेते हैं । तदनन्तर कभी भी श्री संघ पर आपत्ति आए या मंगल कार्यों में विघ्न की संभावना हो तो उसके निवारण - हेतु सदैव तत्पर रहते हैं। इस प्रकार पूजित देवी - देवता शुभ अनुष्ठानों को निर्विघ्नतः सम्पन्न करने में सहायक बनते हैं तथा परमात्म भक्ति के कार्यों में उपस्थित हो सम्यक्त्व गुण का उपार्जन करते हैं।
सुस्पष्ट है कि व्यन्तरादिकृत उपद्रवों से संरक्षित होने एवं मांगलिक विधानों को निराबाध रूप से सम्पन्न करने के उद्देश्य से बलिक्षेपण करते हैं। प्राचीन प्रतिष्ठा कल्पों में बलि सामग्री को उछालने की विधि कही गई है।
बलि के रूप में प्रयुक्त धान्यों का सामान्य वर्णन इस प्रकार है
चावल- यह धान्य शाली, व्रीहि आदि नाम से भी जाना जाता है। आयुर्वेद के अनुसार चावल मलरोधक, रुचिकारक, पौष्टिक, शीतल, विषनाशक एवं कान्तिजनक है। इसके उपयोग से दुःस्वप्न बंद हो जाते हैं।