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506 ... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
द्रव्य प्राण दस हैं- पाँच इन्द्रियाँ - 1. स्पर्शेन्द्रिय 2. रसनेन्द्रिय 3. घ्राणेन्द्रिय 4. चक्षुन्द्रिय 5. श्रोत्रेन्द्रिय
तीन बल - 6. मनोबल 7. वचन बल 8. काय बल 9. श्वासोश्वास और 10. आयुष्य
भाव प्राण चार हैं- 1. दर्शन 2. ज्ञान 3. चारित्र और 4. वीर्य
इन प्राणों में आत्मा का कहीं उल्लेख नहीं है। अतः समझना होगा कि जिस प्रकार सूर्य और उसकी किरणें भिन्न होती है उसी प्रकार आत्मा और आत्मा की चेतनता का आभास कराने वाला यह शरीर और ऊपर वर्णित प्राण भिन्न हैं । आत्मा अलग है और दृश्य शरीर अलग है।
चेतन गुण से समृद्ध आत्मा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द रहित है, अमूर्तिक होने से इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है। सहजानन्द स्वरूपी है और सम्यक्दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र आदि अनन्त गुणों का पिण्ड है। आत्मा के इन गुणों की अपेक्षा से मुक्तात्मा की प्रतिष्ठा मूर्तियों में असंभव है। अतः कहा जा सकता है कि उस आत्मा के सिद्ध होने के पूर्व जिस पर्याय का आवरण था, जो प्राण कहलाते हैं और ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं उन्हीं की प्रतिष्ठा की जाती है ।
वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर किसी भी व्यक्ति के द्रव्य प्राणों को पौद्गलिक होने के कारण यंत्रों द्वारा वीडियो आदि में प्रतिष्ठित किया जा सकता है, जिन्हें आवश्यकता पड़ने पर टेलीविजन सेट्स आदि में देखा जा सके।
यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि संसार के किसी भी कोने में होने वाले पौद्गलिक कार्यक्रमों को यंत्रों के माध्यम से कहीं भी देखा जा सकता है।
प्रत्येक जीव में पुराने पुद्गलों का क्षरण हो रहा है और उसके द्वारा नये पुद्गल ग्रहण किए जा रहे हैं। जो क्षरण हो रहा है वह ब्रह्माण्ड में उस छापयुक्त रहता है। यही कारण है कि किसी जगह चोरी हो जाने पर प्रशिक्षित कुत्ते उस चोर के क्षरण हुए पुद्गलों के आधार पर उन पुद्गलों का पीछा करते-करते चोरों को पकड़ लेते हैं। इस प्रकार पुद्गलों की सत्ता एवं उनकी अपनी-अपनी क्रियावती शक्ति इस संसार में अनादिकाल से है और रहेगी भी, जिसे विज्ञान ने भी प्रमाणित कर दिया है।
अतः यह प्रमाणित है कि प्रत्येक संसारी जीव के प्राणों के पुद्गल परमाणु, उस छाप युक्त इस ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं। इसी मान्यता के आधार पर वैज्ञानिक इस बात के लिए प्रयत्नशील हैं कि कुरुक्षेत्र में दिये गये गीता के