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524... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
सकती है और उससे मानसिक प्रसन्नता खण्डित होने की संभावना रहती है। पूर्वाचार्यों ने भी कहा है कि जैसा चित्र होता है चित्त में वैसे ही भाव बनते हैं अतएव मंगलकारी अवसरों पर आनन्दवर्द्धक प्रदर्शनियाँ लगानी चाहिए।
शंका- कुछ आचार्यों के मतानुसार जिनालय में लोहधातु का उपयोग नहीं होना चाहिए, ऐसा क्यों ?
समाधान- आजकल मन्दिरों के निर्माण में प्रायः पत्थरों का उपयोग होता है और उसकी स्थिति लगभग हजार वर्ष की होती है। ऐसे चिरस्थायी कार्यों में लोहे का सरिया आदि प्रयोग करना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि पत्थर की अपेक्षा लोहे की स्थिति अल्प है। इसी के साथ लोहा कालान्तर में काट से फूलकर पत्थर को फाड़ सकता है इसलिए इस धातु के उपयोग का निषेध करते हैं। कुछ जन लोहा को निम्नधातु समझते हैं और इसी कारण मन्दिर में इसे वर्जित मानते हैं, किन्तु ऐसा नहीं है । पूर्वकाल में लोहा को पंचरत्नों में गिना जाता था और प्रतिष्ठा में कृष्ण लोहा की मुद्रिका का उपयोग होता था ।
शंका- राद्धबलि और कोरक बलि किसे कहते हैं ?
समाधान- राद्ध अर्थात रांधा हुआ । देवी-देवताओं को अर्पित एवं तुष्ट करने के लिए अग्नि पर सिझाया गया अथवा रांधा गया धान्य राद्धबलि कहलाता है तथा केवल भिगोया गया धान्यादि कोरकबलि कहलाता है। इन्हें बलि बाकला भी कहते हैं।
पूर्वकाल में रांधे हुए धान्य में घृत, शक्कर, मेवा आदि विशिष्ट पदार्थों को मिलाने के पश्चात उसे दसों दिशाओं में उछाला जाता था, किन्तु परवर्ती काल में इस परम्परा का निर्वहन मात्र करने की दृष्टि से कोरी बलि ही प्रक्षेपित की जाती है। कोरी से कोरक शब्द अस्तित्त्व में आया है। कई जगह आज भी राद्धबलि ही उछालते हैं और मूल विधि भी यही है ।
प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों का अनुशीलन एवं विविध पक्षों से उनका अध्ययन करते हुए जो तथ्य ज्ञात हुए या अनुभूत हुए उन्हें इस अध्याय में प्रस्तुत करने के बाद पाठक वर्ग से यही निवेदन है कि भ्रम, रूढ़, परम्परा, जन मान्यता आदि के बीच यदि प्रत्येक अनुष्ठान के आध्यात्मिक पक्ष को भी ध्यान में रखकर उसे सम्पन्न करने का प्रयास करें तो निश्चित ये सभी प्रसंग आत्मकल्याण में हेतुभूत बन सकते हैं। इसी के साथ इनके विविध पक्षों का संक्षिप्त ज्ञान प्रत्येक विधान के उचित सम्पादन में सहयोगी बन सकता है। यदि