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प्रतिष्ठा विधानों के अभिप्राय एवं रहस्य ... 527
राजस्थान, बंगाल आदि जिस प्रान्त का हो उसे उस प्रान्त का भोजन करवाकर ही सन्तुष्ट किया जा सकता है, अन्य प्रान्तों का स्वादिष्ट भोजन करवाने पर वह खुश हो ही ऐसा जरूरी नहीं हैं। जैसे गुजराती व्यक्ति पतली रोटी या थेपला, नमकीन, मीठी दाल आदि का भोजन कर अधिक प्रसन्न होता है। वैसे ही भिन्नभिन्न जाति के आमन्त्रित देवी-देवताओं को जो भोजन प्रिय है उन्हें वैसा ही भोजन अर्पित करके प्रसन्न किया जा सकता है। देवों के सन्तुष्ट रहने से सभी अनुष्ठान निर्विघ्न एवं शुभ फलदायी होते हैं।
प्रतिष्ठा के दिनों में सकलीकरण के पश्चात शुचिविद्या आरोपण करने का क्या हेतु है?
सकलीकरण के द्वारा शरीर एवं आत्मा का रक्षा कवच बन जाता है । किन्तु प्रतिष्ठा एक श्रेष्ठतम मांगलिक अनुष्ठान होने से शुचिविद्या के द्वारा निर्मित कवच को और अधिक शक्तिशाली बनाया जाता है तथा इससे कवच का बल अनन्त गुणा बढ़ जाता है।
प्रतिष्ठा विधि पाठ में
"सकंकणहस्ताभिर्नारीभिः..... वर्त्तनं
कारणीयं" उल्लेख का क्या अभिप्राय है?
उक्त पाठ का भावार्थ यह है कि प्रतिष्ठा हेतु विविध औषधियाँ एवं मिट्टी आदि मंगवाकर उनका खंडन - पीसण आदि करना होता है। वह कार्य हाथ में कंकण धारण की हुई सधवा स्त्रियों के द्वारा करवाया जाना चाहिए।
वर्तमान में औषधियों के तैयार चूर्ण भी मिलते हैं फिर भी कई जगहों पर मूल विधि से औषधियाँ पिसवाई जाती है। स्मृति मानस मंदिर, अहमदाबाद की प्रतिष्ठा के दौरान ऐसी समग्र विधि की गई थी, नाभिनंदनोद्धार प्रबंध में इस विषय का स्पष्ट उल्लेख है । यथार्थतः नारियों द्वारा औषधि पिसवाना ही सही विधि है।
प्रतिष्ठा पाठ
'सूरिः कंकण मुद्रिका हस्तः..... चारोपयति' के अनुसार प्रतिष्ठाचार्य को स्वर्ण मुद्रिका एवं स्वर्ण कंकण पहनकर ही सकलीकरण करना चाहिए इसका क्या कारण है?
अंजन विधान के दौरान आचार्य इन्द्र सदृश बनते हैं ऐसा माना जाता है, अतः ककंण-मुद्रिका आदि धारण करने का निर्देश है। इस समय अखण्ड वस्त्र