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532... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन से बनवाए जाते है। पाँच सुहागन महिलाएँ एक-एक कर उन्हें पल्लू में धारण कर प्रतिमा के कंधे, घुटने आदि का पौंखण कर परमात्मा की नजर उतारती है। वर्तमान में उपरोक्त दोनों ही विधियाँ देखी जाती हैं।
पौंखण करते समय उक्त साधनों का उपयोग किस प्रकार किया जाए, यह विधि व्यावहारिक रूप से सीखने योग्य है।
आचार्य हरिभद्रसूरि एवं आचार्य पादलिप्तसूरि ने इस सम्बन्ध में यह निर्देश दिया है कि प्रतिमा के अधिवासित हो जाने पर उस प्रतिमा पर चार पवित्र नारियाँ प्रौंखन करें। इस क्रिया में चार से अधिक नारियाँ हो जाए तो भी कोई आपत्ति नहीं है किन्तु चार से कम नहीं होनी चाहिए। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस विधान में “नारियों की वेश-भूषा उत्तम हो तो अति श्रेयस्कर है" इस बात पर विशेष बल देते हुए उसका प्रयोजन भी बतलाया है।
यहाँ प्रश्न होता है कि प्रतिष्ठा विधान के अनन्तर प्रौंखणक क्रिया से क्या तात्पर्य है?
पूर्वाचार्यों के अनुसार इसके निम्न हेतु हो सकते हैं
• प्रतिष्ठा के पूर्व किया जाने वाला यह अनुष्ठान बधाई का सूचक है। इस क्रिया के द्वारा सकल संघ में प्रभु आगमन का संदेश प्रसारित किया जाता है।
• यह नेकाचार प्रसन्नता अभिव्यक्ति के लिए भी करते हैं।
• पौंखण क्रिया करने से जैन धर्म की प्रभावना होती है, साधारण जनता में धर्मोत्साह बढ़ता है, सुपात्र दान की परम्परा का निर्वहन होता है, द्रव्य का अच्छे कार्यों में व्यय करने से उत्कृष्ट पुण्यबंध होता है। इस तरह अन्य भी कई लाभ होते हैं। ___ • इस क्रिया के माध्यम से जिनबिम्बों के प्रति विशिष्ट सत्कार-सम्मान का भाव प्रदर्शित किया जाता है। यह विवाह की रस्म होने से नारियों एवं उपस्थित दर्शकों के मन में स्वाभाविक उल्लास पैदा होता है जिससे मूर्ति का प्रभाव अभिवर्धित होता है। इस भाँति पौंखणक क्रिया अनेक रहस्यों से युक्त है।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने पौंखणक विधान का इहलौकिक फल बतलाते हुए कहा है कि अधिवासित जिनबिम्ब का पौंखण करने और उसके निमित्त यथाशक्ति दान देने से स्त्रियों को कभी भी वैधव्य (विधवापन) और दारिद्र्य प्राप्त नहीं होता है।