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प्रतिष्ठा सम्बन्धी मुख्य विधियों का बहुपक्षीय अध्ययन ...503 अऋतुवती बालिकाएँ करती हैं किन्तु जिनबिम्बों के युगल नेत्रों में अंजन करने का कार्य आचार्य के द्वारा किया जाता है।
अंजनशलाका कब और कहाँ की जानी चाहिए- जैनाचार्यों के मतानुसार अंजनशलाका की मुख्य विधि मध्य रात्रि में की जाती है क्योंकि यह एक विशिष्ट मंत्र विधान है। इस विधि के अन्तर्गत प्रतिष्ठाचार्य गुरु प्रदत्त एवं तीर्थंकर प्रणीत सरिमंत्र से अंजन चूर्ण को अधिवासित करते हैं। उसके पश्चात वह अभिमन्त्रित चूर्ण जिनबिम्बों के युग्म चक्षुओं में लगाया जाता है। इस प्रक्रिया को सम्पादित करने के लिए श्रद्धा, साहस, आत्मबल एवं वातावरण की शुद्धता परमावश्यक है। अर्धरात्रि का समय शांत, निर्मल और अनुकूल होता है। इस समय सम्यक्त्वी देवी-देवता भी कार्य में विशेष रूप से सहयोगी बनते हैं अत: विघ्नों का हरण होता है। ___अंजनशलाका का विधान प्रतिष्ठा मंडप में जहाँ प्रमाणोपेत वेदिका पर मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं वहाँ सम्पन्न होता है अथवा जिनालय के चौकी मण्डप में किया जाता है। ___ यहाँ यह जानने योग्य है कि प्रत्येक प्रतिष्ठा के प्रसंग पर अंजनशलाका हो ही यह जरूरी नहीं है क्योंकि कई बार आस-पास के क्षेत्रों में हो रही अंजनशलाका के अन्तर्गत अन्य गाँव-नगरों में विराजमान होने वाली प्रतिमाओं की भी अंजन विधि करवा दी जाती है। इसलिए जिनबिम्ब का अंजन विधान तो होता ही है और वह भी प्रतिष्ठाचार्य के द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है परन्तु जहाँ प्रतिष्ठा हो वहीं अंजन विधि करवाना यह आवश्यक नहीं है। यह ध्यातव्य है कि अंजन निष्पन्न जिनबिम्ब की स्थापना प्रतिष्ठाचार्य के अतिरिक्त अन्य साधु-साध्वी भी करवा सकते हैं। ____ अंजनशलाका के समय करने योग्य भावना- अंजन की मुख्य विधि के समय प्रतिष्ठाचार्य और विधिकारक ऐसे दो जनों के रहने का ही प्रावधान है। वर्तमान में इन दो के साथ एक-दो श्रावक भी रहते हैं तथा अंजन विधि (केवलज्ञान कल्याणक) होने के पश्चात निर्वाण कल्याणक विधि की जाती है।
• अंजन क्रिया सम्पादित करते समय आचार्य को परम शुद्ध भावों से युक्त होकर 'सवि जीव करूं शासन रसी' की भावना से यह विधान करना चाहिए। प्रतिष्ठाचार्य के अध्यवसायों के अनुरूप ही प्रतिमा में वीतराग भाव स्थापित