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जिन प्रतिमा- प्रकरण 195
गृह चैत्यालय और संघ चैत्यालय में प्रतिमा की ऊँचाई कितनी हो ? शिल्प ग्रन्थों के निर्देशानुसार गृह चैत्यालय में ग्यारह अंगुल तक ऊँची (9 इंच से कम) प्रतिमा ही विराजमान करनी चाहिए। इससे अधिक ऊँची प्रतिमा श्रावक को पीड़ाकारक होती है।
एक हाथ से छोटी वेदी में स्थिर प्रतिमा या मूलनायक की स्थापना नहीं करनी चाहिए। इसी तरह गृह मंदिर में भी अचल बिम्ब की प्रतिष्ठा नहीं करनी चाहिए। गृह मन्दिर में पाषाण की प्रतिमा रखने का भी निषेध किया गया है वहाँ पंच धातु या स्वर्णादि रत्नों की प्रतिमा रखनी चाहिए।
श्रीसंघ के मन्दिर में ग्यारह अंगुल से नौ हाथ पर्यन्त (लगभग 13 फुट ) ऊँची प्रतिमा पूजनीय है और इससे अधिक ऊँची अर्थात दस हाथ से अधिक ऊँचाई वाली प्रतिमा मन्दिर के बिना भी पूज्य है। 32
प्राचीन प्रतिमा के सम्बन्ध में शुभाशुभ फल का विचार
उमास्वामी श्रावकाचार आदि प्रतिष्ठा कल्पों के अनुसार जो प्रतिमा एक सौ वर्ष पहले उत्तम पुरुषों द्वारा स्थापित की गई हो, ऐसी प्रतिमा विकलांग (बेडौल) हो अथवा खण्डित हो तो भी पूज्य होती है। उस प्रतिमा की पूजा का फल निष्फल नहीं होता है।
यदि मूलनायक रूप में स्थापित प्रतिमा का मुख, नाक, नेत्र, नाभि और कमर इन अंशों में से कोई अंग खण्डित हो जाये तो उसका त्याग कर देना चाहिए, किन्तु परिकर का चिह्न खण्डित हो तो पूजा कर सकते हैं उसमें दोष नहीं है।
धातु की या लेप्य से निर्मित प्रतिमा का अंग यदि खण्डित हो जाए, तो उस प्रतिमा का खण्डित अंग पुनः ठीक कर उसकी पूजा कर सकते हैं। किन्तु काष्ठ या पाषाण की प्रतिमा खण्डित हो जाये तो उस मूर्ति के खण्डित अंगों को पुनः सुधारा नहीं जा सकता । प्रतिष्ठित होने के पश्चात किसी भी मूर्ति का पुनरूद्धार नहीं किया जा सकता है।
कदाचित संस्कार निर्माण की आवश्यकता हो तो उस मूर्ति की पुनः पूर्ववत प्रतिष्ठा करनी चाहिए। कहा गया है कि
प्रतिष्ठिते पुनर्बिम्बे, संस्कारः स्यान्न कर्हिचित् । संस्कारे च कृते कार्या, प्रतिष्ठा तादृशी पुनः ।।