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पंच कल्याणकों का प्रासंगिक अन्वेषण ...233 यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि तीर्थङ्कर तो अन्त में निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। उन्हें चिरशान्ति और सुख की स्थिति उपलब्ध हो जाती है। वे अजर-अमर
अविनाशी, शुद्ध-बुद्ध और सिद्ध हो जाते हैं। सिद्धत्व की स्थिति पूर्ण कृतकृत्यता की स्थिति है। इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। सिद्ध अशरीरी होते हैं, उन्हें पुन: देह धारण नहीं करनी पड़ती। फिर भला एक तीर्थङ्कर का आगामी काल में तीर्थङ्कर के रूप में पुनः आगमन कैसे संभव है? फिर से तीर्थङ्कर बनने के लिये मनुष्य देह धारण करना अनिवार्य है। कालचक्र में तीर्थङ्कर मोक्ष प्राप्त कर पूर्वजन्म के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। मोक्ष अवस्था में समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है, जबकि कर्मों के कारण ही आत्मा को देह धारण करनी पड़ती है। कर्ममल उस बीज की भाँति है जो पुनर्जन्म के रूप में अंकुरित हुआ करता है। इस बीज रूप कर्म को ही जब कठोर तपस्या की अग्नि में भून दिया जाता है तो फिर उसकी अंकुरण शक्ति ही नष्ट हो जाती है। कर्म नष्ट हो जाते हैं, परिणामत: आत्मा का जन्म-मरण के बन्धन से छुटकारा हो जाता है। अत: तीर्थङ्कर के बारे में ऐसा मानना कि उनका पुनः आगमन होता है भ्रान्त ही नहीं, मिथ्या भी है। मात्र तीर्थङ्कर ही निर्वाण के अधिकारी नहीं ?
इसी प्रकार यह भी एक भ्रान्ति प्रचलित है कि मात्र तीर्थङ्कर को ही मोक्ष की प्राप्ति होती है और इनके अतिरिक्त अन्य किसी को यह स्थिति नहीं मिल पाती। वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है। जो तीर्थङ्कर हैं वे तो मोक्ष जाते ही हैं, पर जितने जीव मोक्ष जाते हैं सभी तीर्थङ्कर ही होते हों, ऐसी बात नहीं है। सोना अवश्य ही चमकीला होता है, पर हर चमकदार वस्तु सोना नहीं होती। यही अन्तर मुक्तजनों और तीर्थङ्कर में होता है। वैराग्य-साधना के बल पर कर्मों का क्षय कर अनेक पुरुष निर्वाण को प्राप्त करते हैं, किन्तु इनमें कुछ विशिष्ट पुरुष ही ऐसे होते हैं, जिन्हें तीर्थङ्कर पद की प्राप्ति हो पाती है। यद्यपि दोनों अपने आत्मिक क्षेत्र में समान होते हैं, किन्तु सामान्य मुक्तजन केवल आत्मकल्याण
और आत्मसुख तक सीमित रह जाते हैं, जबकि तीर्थङ्कर अपने अनन्त ज्ञान का उपयोग प्राणीमात्र के उपकार के लिये करते हैं। वे धर्म तीर्थ की स्थापना करते हैं। शिथिल हो गयी धर्म प्रवृत्ति को सबल बनाते हैं। धर्म मार्ग में आ गये