________________
पंच कल्याणकों का प्रासंगिक अन्वेषण ...259
3. दीक्षा कल्याणक दीक्षा कल्याणक का अर्थ
तीर्थङ्कर पुरुषों के द्वारा सर्वविरति रूप चारित्र धर्म को अंगीकार करना दीक्षा कल्याणक कहलाता है। दीक्षा लेने के पश्चात ही तीर्थङ्कर नाम की पुण्य प्रकृति का उदय होता है और उस समय से ही परमात्मा स्वयं के शेष कर्म दलिकों को क्षय करने का पुरुषार्थ प्रकृष्ट रूप से प्रारंभ करते हैं। यद्यपि दीक्षा स्वीकार करने से पूर्व भी दान त्याग आदि की प्रेरणा देते हुए लोक कल्याण करते हैं। दीक्षा को कल्याणक रूप में क्यों मनाएं?
तीर्थङ्कर परमात्मा जन्म से ही तीन ज्ञान के धारक होते हैं इसलिए भावी हर घटना के विषय में जान लेते हैं। तदुपरान्त संयम अंगीकार करने में एक वर्ष शेष रहने पर शाश्वत कल्प के अनुसार लोकान्तिक देव परमात्मा के समक्ष यह प्रार्थना करते हैं कि “भयवं तित्थं पवत्तेहि"- हे भगवन्! धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करिये। उस आचार मर्यादा को स्वीकार कर भगवान प्रतिदिन सूर्योदय से एक प्रहर तक 1 करोड़ 8 लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान देते हैं। इस प्रकार एक वर्ष में 388 करोड़ 80 लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान करते हैं। तीर्थङ्कर प्राणी मात्र के बाह्य दारिद्रय को दूरकर भाव दरिद्रता भी दूर करते हैं।
यद्यपि गृहस्थ अवस्था में तीर्थंकर पाणिग्रहण भी करते हैं, राज्य सिंहासन पर भी आरुढ़ होते हैं, राज्य के ऊपर आक्रमण होने पर उसका प्रतिकार भी करते हैं। यहाँ तक की पूर्व जन्मों के पुण्य बल से चकवर्ती भी बनते हैं किन्तु इन सभी का त्याग करके संयम को प्रमुखता देते हैं क्योंकि भोग से त्याग बलवान होता है और त्याग से मुक्ति होती है इसलिए दीक्षा को कल्याणक कहा गया है। __ जन्म के बाद यदि परमात्मा के जीवन की कोई भी घटना अनुकरणीय एवं अनुमोदनीय बनती है तो वह है दीक्षा ग्रहण, अत: इसे कल्याणक मानना समुचित है। परमात्मा के इसी पथ का अनुसरण करते हुए लाखों-करोड़ों लोगों ने अपना कल्याण किया और करने वाले हैं। मोक्ष पथ की ओर अग्रसर करने वाला यह अवसर शुभकारी, मंगलकारी, जयकारी एवं आनंदकारी होने से निश्चित ही कल्याणक है।