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अठारह अभिषेकों का आधुनिक एवं मनोवैज्ञानिक अध्ययन ...453
आचार्य समन्तभद्र आदि कहते हैं कि अभिषेक और पूजा में इतना अल्प पाप होता है कि अर्जित पुण्यराशि के सामने यह पाप दोष जनक नहीं है। जो गृहस्थ अभिषेक एवं अष्ट द्रव्य से पूजन करने का निषेध अथवा विरोध करते हैं वह घोर पापकर्म का बन्ध करके दुर्लभ मनुष्य पर्याय को व्यर्थ कर रहे हैं।
___ 'अभिषेक सावध जन्य होने पर भी पापसर्जक नहीं है' इस सम्बन्ध में दूसरी युक्ति यह दी जा सकती है कि गृहस्थ का जीवन आर्त्त-रौद्र ध्यान प्रधान एवं विषय-वासना से युक्त है। वह प्रायः पापाचरण में मग्न रहता है इसलिए सामायिक आदि के आलम्बन बिना गृहस्थ के परिणाम स्थिर नहीं रह सकते, अतएव प्रभु भक्ति आदि विविध प्रकार के आलम्बन लेता है जिससे कुछ अवधि के लिए पापक्रियाओं से मुक्त रह सकें।
यदि आत्म धर्म के लिए किये गये कार्यों में हिंसा मानेंगे तो यह युक्तिपूर्ण नहीं होगा। यह मत जैन सिद्धान्त के भी विरुद्ध है क्योंकि 1. क्षायिक सम्यग्दृष्टि सौधर्म इन्द्र अथाह जलराशि से जन्माभिषेक करता
है। समवसरण में देवगण पुष्पवृष्टि करते हैं। 2. तीर्थों एवं तीर्थंकर परमात्मा के दर्शन-वन्दन करने के लिए राजा,
श्रीमन्त, सेठ साहूकार आदि अपार सैन्यदल एवं प्रजाजन सहित आते हैं। 3. साधु-साध्वियों की दीक्षा, चातुर्मास प्रवेश, पदारोहण उत्सव आदि
अवसरों पर साधर्मी वात्सल्य का आयोजन होता है।
उक्त कार्यों में अत्यधिक हिंसा होने से महापाप होना चाहिए, परन्तु जैन दर्शन के अनुसार यह कार्य पुण्योपार्जन के लिए किये जाते हैं, हिंसा की भावना से नहीं। अत: पाप की अल्पता एवं पुण्य की अधिकता के कारण उपर्युक्त कार्य दोष पूर्ण नहीं है। पूर्वाचार्यों के अनुसार गृहस्थ मात्र संकल्पी हिंसा का त्यागी होता है शेष का नहीं। अभिषेक जल वंदनीय क्यों?
प्रायः देखा जाता है कि मन्दिर दर्शन के लिए आने वाले लोग दर्शन-पूजा करने के पश्चात न्हवण-जल को हाथ से संस्पर्शित कर उसे मस्तक पर लगाते हैं ऐसा क्यों?
इसका जवाब यह है कि प्रतिष्ठा के दौरान प्रसंग पर दीक्षा कल्याणक एवं केवलज्ञान कल्याणक के समय प्रतिमा के ऊपर बीजाक्षरों का आरोपण एवं मंत्र