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452... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
जैनाचार्यों ने चौथे अभिषेक को ही प्रतिमाभिषेक कहा है और यही अभिषेक कर्म निर्जरा एवं उत्कृष्ट पुण्य बंध का हेतु माना गया है। प्रतिमा अभिषेक की परम्परा कब से?
त्रिलोकसार एवं जंबूदीव संगहो के अनुसार तीर्थंकरों के पंच कल्याणक और अकृत्रिम जिनालय अनादिनिधन हैं। भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष और वैमानिक इन चारों जाति के करोड़ों देवी-देवता अष्टाह्निका पर्व में नन्दीश्वर द्वीप जाकर चारों दिशाओं में स्थित शाश्वत चैत्यालयों में क्रमश: दो-दो प्रहर पूर्वक अहोरात्र प्रतिमाओं का अभिषेक और पूजन करते हैं। इस प्रकार अभिषेक की परम्परा शाश्वत है।
अभिषेक के मूल्य को सिद्ध करने वाला दूसरा तथ्य यह है कि आज भी इन्द्रादि देवी-देवताओं को महाविदेह क्षेत्र में विचरण कर रहे बीस तीर्थंकरों के कल्याणक एवं साक्षात दर्शन-पूजन का सौभाग्य प्राप्त होने पर भी अकृत्रिम चैत्यालयों के बिंबों का भक्तिपूर्वक अभिषेक करने जाते हैं और स्वयं को धन्य मानते हैं। इससे सिद्ध होता है कि अभिषेक गृहस्थ का दैनिक आचार है और यह उत्कृष्ट पुण्योपार्जन का प्रबल साधन है।
यह भी समाधान दिया जाता है कि प्रतिमा की स्वच्छता के लिए अभिषेक करते हैं। यदि यह कारण प्रमुख होता तो नंदीश्वर द्वीप एवं ऊर्ध्व-अधो लोक के शाश्वत जिनालयों में जहाँ कण मात्र भी धूल नहीं है फिर भी देवतागण अभिषेक क्यों करते हैं? __दिगम्बर आचार्यों ने स्पष्टत: लिखा है कि देवी-देवता जन्म लेते ही धर्म की प्रशंसा करते हुए सर्वप्रथम सरोवर में स्नान करके एवं अलंकारों से सुसज्जित होकर जिनेश्वर देव का अभिषेक एवं पूजन करते हैं। ___ स्पष्ट है कि अभिषेक का मुख्य हेतु अनादिनिधनता है। अभिषेक क्रिया सावधकारी किन्तु निर्जरा प्रधान कैसे?
यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि प्रासुक जल का उपयोग करने से भी अप्कायिक जीव हिंसा होती है तब प्रतिमा का अभिषेक करने पर जीव हिंसा और आरम्भ जन्य दोष कैसे नहीं लगता है?
समाधान यह है कि इस क्रियानुष्ठान के निमित्त से भावों की विशुद्धि एवं प्रभु भक्ति से अनंत गुणा पुण्यास्रव, संवर और कर्मों की निर्जरा होती है जिससे आरंभ दोष अत्यधिक न्यून हो जाता है।