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प्रतिष्ठा सम्बन्धी मुख्य विधियों का बहुपक्षीय अध्ययन ...481
ध्वजारोहण विधि का प्रतीकात्मक स्वरूप सामान्य रूप से ध्वज का आरोहण करना ध्वजारोहण कहलाता है। इसमें 'ध्वज' और 'आरोहण' इन दो शब्दों का योग है। ध्वज का अर्थ झण्डा, पताका आदि किया गया है। यह वस्त्र से निर्मित एक टुकड़ा होता है जिसे डंडे में लगाया जाता है। ध्वजा मन्दिर के अस्तित्व एवं उसके प्रसिद्धि की द्योतक है। इसे मन्दिर के शिखर पर चढ़ाना या उसकी स्थापना करना ध्वज प्रतिष्ठा कहलाता है। जिस दंड पर ध्वजा चढ़ाई जाती है उसे ध्वजदंड कहते हैं। ध्वजदंड जिसके आधार पर रहता है उसे ध्वजाधार कहते हैं।
ध्वजारोहण की आवश्यकता क्यों?- ध्वजा प्रसन्नता एवं मंगल की वाचक है। इसका समावेश अष्ट मांगलिक चिह्नों, चौदह स्वप्नों आदि में होता है। सामुद्रिक शास्त्र, लक्षणशास्त्र एवं स्वप्न शास्त्र में ध्वज को श्रेष्ठता का सूचक माना गया है। इसी तरह सभी संस्कृतियों में ध्वजा को श्रेष्ठता, विजय एवं अस्तित्व का द्योतक स्वीकारा गया है।
जैसे तिरंगा झंडा भारत या भारतीयता की पहचान है वैसे ही मंन्दिर पर लहराती ध्वजा देवालय की सूचक है। जैन धर्म के अनुसार ध्वजा जिनेश्वर परमात्मा के अतिशयों एवं कीर्ति की प्रसारक होने से इसे शिखर पर आरोपित करते हैं। ___ध्वजा मन्दिर की शोभा होती है। इसे शिखर पर आरोपित करने से यह देखने वाले को बार-बार परमात्मा के गुणों का स्मरण करवाती है। प्रभु स्मरण से अनंत कर्मों की निर्जरा, नए पुण्य का बंध और शुभ भावों का जागरण होता है। ध्वजा के रंगों को देखकर पंच परमेष्ठी के गुणों का स्मरण हो आता है, जिससे हमारे आत्म गुण प्रकट होते हैं।
कलश और ध्वजा के बिना जिन मंदिर को अधूरा माना गया है। जैसा कि प्रासाद मंडन, वास्तुसार प्रकरण एवं शिल्प रत्नाकर' में कहा गया है
निश्चिन्हं शिखरं दृष्ट्वा, ध्वजाहीनं सुरालयं ।
असुरावासमिच्छन्ति, ध्वजहीनं न कारयेत् ।। कलशहीन एवं ध्वजरहित देवालय असुरवासी हो जाते हैं। ध्वजारोहण परमात्मा के प्रति अहोभाव प्रकट करने का अनुपम माध्यम है। यह सदैव