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पंच कल्याणकों का प्रासंगिक अन्वेषण ...239 6. भामंडल- देवताओं द्वारा भगवान के मुख मंडल के पीछे शरद् ऋतु के सूर्य समान तेजस्वी भामंडल की रचना की जाती हैं। उस भामंडल में भगवान का तेज संक्रमित होता है। यदि भामंडल न हो तो भगवान का मुख कोई देख ही नहीं पाएगा क्योंकि इन चर्म चक्षुओं से परमात्मा के तेज को सहन करना असंभव है। __7. देव दुंदुभि- भगवान के समवसरण के समय देवता देव दुंदुभि बजाते हैं। वे ऐसा सूचन करते हैं कि हे भव्य प्राणियों! तुम मोक्ष नगर के सार्थवाह तुल्य इन भगवान की सेवा करो, इनकी शरण में जाओ।
8. छत्र- समवसरण में देवता भगवान के मस्तक के ऊपर शरद् चन्द्र के समान उज्ज्वल तथा मोतियों की मालाओं से सुशोभित ऊपरा-ऊपरी क्रमश: तीन-तीन छत्रों की रचना करते हैं। भगवान स्वयं समवसरण में पूर्व दिशा की तरफ मुख करके बैठते हैं और अन्य तीन (उत्तर, पश्चिम, दक्षिण) दिशाओं में देवतागण भगवान के प्रतिबिम्ब रचकर स्थापित करते हैं। इस प्रकार चारों तरफ प्रभु विराजमान हैं ऐसा दिखाई पड़ता है। चारों तरफ प्रभु के ऊपर तीन-तीन छत्रों की रचना होने से बारह छत्र होते हैं। ___आठों प्रातिहार्य भगवान को केवलज्ञान होने के पश्चात शरीर छोड़ने से पहले तक सदा साथ रहते हैं। चार मूल अतिशय
1. अपायापगमातिशय- अपाय अर्थात उपद्रवों का, अपगम अर्थात नाश। यह अतिशय स्वाश्रयी और पराश्रयी ऐसे दो प्रकार का होता है।
स्वाश्रयी अपाय अपगम अतिशय- स्वाश्रयी अतिशय भी दो प्रकार के होते हैं। द्रव्य से अरिहन्त भगवान के समस्त रोगों का क्षय हो जाता है अत: वे सदा स्वस्थ रहते हैं। भाव से अठारह प्रकार के आभ्यंतर दोषों का भी सर्वथा नाश हो जाता है। वे 18 दोष निम्न हैं
1. दानान्तराय 2. लाभान्तराय 3. भोगांतराय 4. उपभोगांतराय 5. वीर्यान्तराय-अन्तराय कर्म के क्षय हो जाने से ये पाँचों नहीं रहते। 6. हास्य 7. रति 8. अरति 9. शोक 10. भय 11. जुगुप्सा-चारित्र मोहनीय की हास्यादि छह कर्म प्रकृतियों के क्षय हो जाने से ये छह दोष नहीं रहते। 12. काम-स्त्री वेद पुरुष वेद, नपुंसक वेद-चारित्र मोहनीय की इन तीन कर्म प्रकृतियों का क्षय हो