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जिनमन्दिर निर्माण की शास्त्रोक्त विधि ...159 5. यदि द्वार के ठीक सामने से मार्ग आरम्भ होता है तो यह यजमान एवं
मन्दिर निर्माता के लिए अति अशुभ एवं विनाशकारी हो सकता है। 6. द्वार में छिद्र धनहानि का सूचक है।
मन्दिर निर्माण का कार्य करने से पूर्व ही वेध दोष के परिहार का अवश्य ध्यान रखना चाहिए।
यहाँ ध्यातव्य है कि यदि मुख्य द्वार की ऊँचाई से दुगुनी दूरी छोड़कर कोई वेध हो तो वह प्रभावकारी नहीं होता।
इसी भाँति द्वार एवं वेध के मध्य प्रमुख मार्ग हो जिस पर निरन्तर आवागमन होता हो तो भी वेध का दुष्प्रभाव नहीं रहता है। जिस तरह गृह भवन का निर्माण करते समय वेध विचार एवं उसका परिहार किया जाता है उसी तरह प्रासाद के निर्माण के समय भी वेध परिहार करना अत्यन्त आवश्यक है। जिनालय के परिसर में होनी वाली अशुभताएँ एवं अपशकुन
जैन ज्योतिष शास्त्र में जिनालय की पवित्रता बनी रहे, इस सन्दर्भ में शकुन विचार भी किया गया है। इस शास्त्र के अनुसार मंदिर परिसर में निम्न लक्षण उपस्थित होने पर उनका परिहार करना चाहिए, अन्यथा अनेक दोषों की संभावनाएँ रहती है1. देव शिल्प में कहा गया है कि मन्दिर में मधुमक्खी का छत्ता लगने पर,
कुकुरमुत्ता होने पर एवं खरगोश के प्रवेश करने पर छह माह का दोष रहता है। गिद्ध पक्षी, कौआ, उल्लु एवं चमगादड़ आदि मंदिर में प्रवेश कर जाए तो पंद्रह दिन तक दोष रहता है तथा गोह के प्रवेश करने पर
तीन माह तक दोष रहता है। 2. प्रासाद की छत पर, दरवाजे पर, दीवारों पर अथवा झरोखों में एकाएक ___ टिड्डियाँ या मधुमक्खियाँ आकर गिर जाती हैं तो भय, शोक, कलह,
जनहानि आदि कष्ट हो सकते हैं। 3. यदि मन्दिर में उल्लू या बाज पक्षी घोंसले बनाकर रहे तो इससे समाज ___ में दरिद्रता आती है। 4. यदि मन्दिर में बिल्ली या कुतिया प्रसव कर दें तो संघ के वरिष्ठ सदस्य
की मृत्यु संभावना होती है। 5. यदि मन्दिर में अग्नि के बिना ही धुएं जैसा वातावरण प्रतीत हो तो इससे
समाज में कलह एवं अशान्ति का वातावरण बनता है।