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जिनमन्दिर निर्माण की शास्त्रोक्त विधि... 161
पर मन्दिर निर्माता, निर्माण शिल्पी और समाज भी दीर्घ काल तक कष्ट पाता है। शिल्पियों की अज्ञानता एवं असावधानी से निम्नोक्त कुछ दोषों का होना संभव है
दिग्मूढ़ दोष एवं उसका फल- दिग्मूढ़ दोष से तात्पर्य है कि मूल दिशाओं से हटकर वास्तु का निर्माण करना । जैसे कि पूर्व-पश्चिम दिशा की लम्बाई में मन्दिर बना हो और उसका प्रवेश द्वार अथवा प्रतिमा का मुख, आग्नेय अथवा वायव्य की ओर हो जाये तो यह महा अनर्थकारी है। ऐसा होने पर मन्दिर निर्माता, प्रतिष्ठाकारक या समाज के प्रमुख सदस्य को स्त्री मरण का कष्ट होता है। यदि जिनालय उत्तर-दक्षिण दिशा की लम्बाई में बना हो और उसका प्रवेश द्वार अथवा प्रतिमा का मुख आग्नेय अथवा वायव्य की तरफ हो जाए तो मन्दिर निर्माता, प्रतिष्ठाकारक समाज के प्रमुख सदस्यों के लिए महा अनिष्टकारी एवं सर्व विनाश का कारण होता है । अतएव मन्दिर निर्माण करते समय दिग्मूढ़ दोष का सतर्कता पूर्वक निराकरण करें 182
छाया भेद दोष- प्रासाद की ऊँचाई एवं चौड़ाई के अनुसार बायीं और दाहिनी तरफ की जगती का मान होना चाहिए। ऐसा न होने पर छाया भेद दोष होता है। 83
छन्द भेद दोष एवं उसका फल - जैसे छन्दों में गुरु-लघु यथास्थान न होने पर छन्द दूषित होता है उसी प्रकार प्रासाद की अंग विभक्ति शास्त्र नियमानुसार न करने पर प्रासाद दूषित होता है। इससे स्त्री मृत्यु, शोक, संतापादि होता है तथा पुत्र, पति एवं धन का क्षय होता है । मन्दिर वास्तु का निर्माण करते समय यदि पद लोप, दिशा लोप अथवा गर्भ लोप हो तो मन्दिर निर्माता एवं निर्माण कर्त्ता (बनाने वाला और बनवाने वाला) दोनों ही अधोगति को प्राप्त होते हैं।
जिनालय में स्तम्भों के पाषाणों का थर भंग होने पर शासन देव कुपित होते हैं तथा शिल्पी का मरण होता है अतएव शास्त्र विधियुक्त मंदिर निर्माण करवाना चाहिए। 84
प्रमाण दोष एवं उसके फल- मन्दिर का निर्माण शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्रमाणोपेत होना चाहिए। यदि प्रमाण से विरुद्ध कम-ज्यादा हो तो नाना प्रकार के संकटों का कारण बनता है। प्रमाण से मन्दिर आयु, सौभाग्य एवं पुत्र-पौत्र आदि संतति दायक होता है।
युक्त