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ब्रह्मा
164... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन बायां हाथ
रूद्र-रूद्र दास जंघा
मृत्यु-मैत्र देव नाभि का पृष्ठ भाग गुह्येन्द्रिय स्थान इन्द्र + जय दोनों घुटने
अग्नि-रोग देव दायें पाँव की नली पूषा, वित्तथ, गृहक्षत, यम, गंधर्व,
शृंगगमृग बायें पाँव की नली नंदी, सुग्रीव, पुष्पदंत, वरुण, असुर, शेष,
पापयक्ष्मा पाँव
पितृदेव वास्तु मंडल में उक्त देवों के अतिरिक्त दिशा-विदिशाओं के बाह्य भाग पर आठ देवियाँ निवास करती हैं उनका क्रम निम्न प्रकार है
ईशान कोण में चरकी, पूर्व दिशा में पीली पीछा, अग्नि कोण में विदारिका, दक्षिण दिशा में जम्भादेवी, नैर्ऋत्य कोण में पूतना, पश्चिम दिशा में स्कन्दा, वायु कोण में पापा राक्षसिका, उत्तर दिशा में अर्यमा देवी। इस वास्तु मंडल पर वास्तु शांति पूजन करना चाहिए।86
जिन मन्दिर निर्माण अनेक जिम्मेदारियों से युक्त एक विशाल कार्य माना जाता है। एक घर जिसका नवीनिकरण 10-15 वर्षों में होना ही है उसके निर्माण में हजारों बातों का ध्यान रखा जाता है तो फिर मन्दिर जो कि सैकड़ों वर्षों के लिए बनाया जाता है उसमें कितनी अधिक सावधानी अपेक्षित हो सकती है यह सहज सिद्ध है। मन्दिर का एक-एक भाग साधक के मनो-मस्तिष्क को प्रभावित करता है और उसमें रही छोटी सी चूक उसके असर को न्यून कर देती है। छठवें अध्याय के माध्यम से श्रावक वर्ग मन्दिर सम्बन्धी सूक्ष्मताओं को जान सकें एवं निर्माण काल में सचेत रहकर सुंदर एवं प्रभावशाली जिनमन्दिरों का निर्माण कर सकें यही अन्तर प्रयास। सन्दर्भ-सूची 1. जिणभवण कारावण विही, सुद्धा भूमी दलं च कट्ठाई। भियगाणइ संधाणं, सासयवुड्डी य जयणा य॥
पंचाशकप्रकरण, 7/9