________________
जिनमन्दिर निर्माण की शास्त्रोक्त विधि ...157 मन्दिर निर्माण सम्बन्धी सावधानियाँ
मन्दिर का निर्माण करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उसमें किसी प्रकार का वेध दोष न आये। वेध दोष कई प्रकार के होते हैं और उनका प्रत्यक्ष फल भी देखा जाता है। उपाश्रय आदि धार्मिक भवनों के निर्माण में भी इन दोषों का परिहार करना चाहिए। वेध दोष के प्रकार एवं उनका फल
वास्तुसार प्रकरण के अनुसार वेध दोष के प्रकारादि का वर्णन इस प्रकार है1. तल वेध- जिस भूमि पर चैत्य का निर्माण करवाया जा रहा हो, वह
समतल होनी चाहिए। ऊबड़-खाबड़ या गड्ढे वाली भूमि होने पर तल वेध नामक दोष आता है और उस भूमि पर किया गया निर्माण अशुभ
होता है। 2. कोण वेध- यदि वास्तु में कोने समकोण 90° के न होकर न्यून अथवा __ अधिक हों तो उसे कोण वेध कहते हैं। इस दोष युक्त भूमि पर चैत्य का निर्माण करवाने से उस गाँव के परिवारों में निरन्तर अशुभ घटनाएँ,
परेशानियाँ, वाहन दुर्घटना इत्यादि की संभावना होती है। 3. तालू वेध- मन्दिर की दीवारों के पीढ़े अथवा खूटी ऊँची-नीची होने पर
तालु वेध होता है। इससे अनायास गाँव और समाज में चोरी का भय
उत्पन्न होता है। 4. शिर वेध- मन्दिर के किसी द्वार के ऊपर मध्य भाग में खूटी आदि
लगाने से शिर वेध होता है। इससे समाज में दरिद्रता तथा शारीरिक एवं
मानसिक संताप बना रहता है। 5. हृदय वेध- मन्दिर के ठीक मध्य में स्तम्भ होने पर हृदय वेध होता है।
इससे समाज में कुल क्षय, वंश नाश आदि परेशानियाँ बनी रहती है। 6. तुला वेध- मन्दिर में विषम संख्या में खूटी अथवा पीढ़े हो तो उसे तुला ___ वेध कहते हैं। इसके दुष्प्रभाव से समाज में अशुभ घटनाओं की
सम्भावनाएँ बनी रहती है। 7. द्वार वेध- मन्दिर द्वार के ठीक सामने अथवा मध्य में स्तम्भ अथवा वृक्ष
हो तो उसे द्वार वेध कहते हैं। किसी अन्य गृह अथवा मन्दिर का कोना