Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 9
दहीहिं । तरूहिं । धेणूहिं । महूहिं कयं ॥ भ्यस् । गिरीओ । बुद्धीओ । दहीओ । तरूओ । दहीसु धेणूओ । महुओ आगओ ।। एवं गिरीहिन्तो । गिरीसुन्तो आगओ इत्याद्यपि ॥ सुप् । गिरीसु । बुद्धीसु। दहीसू। तरूसु। धेणूसु । महूसु ठिअं।। क्वचिन्न भवति । दिअ-भूमिसु दाण- जलोल्लिआई ।। इदुत इति किम् । वच्छेहिं । वच्छेसुन्तो। वच्छेसु॥ भिस्यस्सु पीत्येव । गिरिं तरूं पेच्छ ।।
अर्थः- प्राकृत ह्रस्व इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों में तृतीया विभक्ति के बहुवचन संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर आदेश - प्राप्त 'हि, हिँ और हिं' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर एवं पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर आदेश - प्राप्त 'ओ, उ, हिंतो और सुन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सुप्' के स्थान पर 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर हस्व अन्त्य स्वर 'इ' का अथवा 'उ' का दीर्घ स्वर 'ई' और 'ऊ' यथाक्रम से हो जाते हैं। जैसे:- 'भिस्' प्रत्यय से संबंधित उदाहरण:गिरिभिः=गिरीहिं; बुद्धिभिः- बुद्धीहिं:, दधिभिः = दहीहिं, तरूभिः =तरूहिं; धेनुभिः = धेहिं और मधुभिः कृतम=महूहिं कयं । इत्यादि ।
‘भ्यस्' से संबंधित उदाहरण :- गिरिभ्यः = गिरीओ, गिरीहिन्तो और गिरीसुन्तो । बुद्धीभ्यः- बुद्धिओ। दधिभ्यः- दहीओ। तरूभ्यः=तरूओ। धेनुभ्य=घेणूओ और मधुभ्यः आगतः = महूओ आगओ। इत्यादि । 'सुप्' से संबंधित उदाहरण: - गिरिषु-गिरीसु । बुद्धिषु = बुद्धीसु । दधिषु = दहीसु । तरूषु = तरूसु । धेनुषु = घेणूसु और मधुषु स्थितम् = महूसु ठि । इत्यादि । किन्हीं शब्दों में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर ह्रस्व अन्त्य 'इ' अथवा 'उ' का दीर्घ 'ई' अथवा 'ऊ' नहीं भी होता है। जैसे:- द्विज - भूमिषु दान-जलार्द्रीकृतानि-दिअ-भूमिसु दाण - जलोल्लिआइ। इस उदाहरण में 'भूमिसु' के स्थान पर ह्रस्व इकारान्त रूप कायम रह कर 'भूमिसु' रूप ही दृष्टिगोचर हो रहा है; यह अन्यत्र भी जान लेना चाहिये ।
प्रश्न- ‘इकारान्त' ‘उकारान्त' शब्दों में ही 'भिस्, भ्यस् और सुप्' प्रत्ययों के प्राप्त होने पर अन्त्य ह्रस्व स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर हो जाता है ऐसा क्यों लिखा है?
उत्तर:- जो प्राकृत शब्द 'इकारान्त' अथवा 'उकारान्त' नहीं है; उन शब्दों में 'भिस्, भ्यस् और 'सुप्' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर भी अन्त्य ह्रस्व स्वर का दीर्घ स्वर नहीं होता है; अतः ऐसा विधान केवल इकारान्त और उकारान्त शब्दों के लिये ही करना पड़ा है। जैसे :- वृक्षैः वच्छेहि; वृक्षेभ्यः - वच्छेसुन्तो और वृक्षेषु = वच्छेसु । इन उदाहरणों में 'वच्छ' शब्द के अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति नहीं हुई है। इस प्रकार 'ह्रस्व से दीर्घता' का विधान केवल इकारान्त और उकारान्त शब्दों के लिये ही है; यह सिद्ध हुआ है।
प्रश्न:- 'भिस्, भ्यस् और सुप्' प्रत्ययों के प्राप्त होने पर ही ह्रस्व 'इकारान्त' और ह्रस्व 'उकारान्त' के अन्त्य 'स्वर' को दीर्घता प्राप्त होती है; ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तरः- यदि ह्रस्व इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'भिस्' भ्यस् और सुप्' प्रत्ययों के अतिरिक्त अन्य प्रत्ययों की प्राप्ति हुई हो तो इन शब्दों के अन्त्य ह्रस्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- गिरिम् अथवा तरुम् पश्य- गिरिं अथवा तरुं पेच्छ। इन उदाहरणों में द्वितीया विभक्ति के एकवचन का 'म्' प्रत्यय प्राप्त हुआ; और 'भिस्, भ्यस् अथवा सुप्' प्रत्ययों का अभाव है; तदनुसार इनमें ह्रस्व स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर की प्राप्ति भी नहीं हुई है । यों अन्यत्र भी विचार कर लेना चाहिये ।
गिरिभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरीहिं होता है। इनमें सूत्र- संख्या ३-१६ से मूल गिरि शब्दान्त (द्वितीय ह्रस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ 'ई' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गिरीहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
बुद्धिभिः - संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीहिं होता है। इनमें सूत्र - संख्या ३- १६ से और ३-७ से 'गिरीहिं" के समान ही साधनिका की प्राप्ति होकर बुद्धीहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org