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आचार्य पूज्यपाद (5वीं सदी), अकलंक (आठवीं सदी) एवं पं. आशाधार (13 वीं सदी) के कथन
सर्वार्थसिद्धि' तत्वार्थराजवार्त्तिकर, अनगारधर्मामृत (पं. आशाधर कृत) तथा उत्तराध्ययन सूत्र' में भी उक्त सामायिक एवं छेदोपस्थापना सम्बन्धी मूलाचार के सिद्धान्त के समर्थन में विस्तृत व्याख्याएँ उपलब्ध होती हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट बताया गया है कि "सामायिक करने से चाउज्जाम (चातुर्याम ) धर्म का परिपालन होता है, जो इसे पालता है, उसका सामायिक-संयम होता है तथा जो सामायिक-संयम को विभाजित कर पाँच यामों में स्थित होता है, वह छेदोपस्थापक कहलाता है, आचारांग सूत्र के अनुसार वर्धमान महावीर ने दीक्षा के समय सामायिक-संयम ग्रहण किया था । यथा— तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं दाहिणं वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेंता णमोक्कारं करेई । करेंता सव्वं में अकरणिज्जं पावकम्मं त्ति कट्टु सामाइयं-चरित्तं पडिवज्जई' ।।
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तात्पर्य यह कि मूलाचार में जिसे छेदोपस्थापना कहा गया है, उत्तराध्ययन सूत्र में वही चाउज्जाम धर्म है। सामायिक एक व्रत है तथा उसका पाँच भागों में विभाजन ही छेदोपस्थापना कहलायी । आचारांग-सूत्र एवं दिगम्बरपरम्परा के अनुसार पार्श्वनाथ सामायिक - संयम के उपदेशक थे। भगवती - व्याख्या, प्रज्ञति (25/7/785) में भी यही तथ्य उपलब्ध होता है ।
पार्श्वयुगीन श्रावकः वर्तमान कालीन 'सराक'
बीसवीं सदी के प्रारम्भिक चरण में पारसनाथ पहाड़ ( शिखर सम्मेद ) की तराई में पार्श्व विषयक प्राच्यकालीन साक्ष्यों की खोजबीन करने के प्रयत्न किए गए हैं। व्ययसाध्य, श्रमसाध्य एवं धैर्यसाध्य होने के कारण वह कार्य जैसा होना चाहिए था, वैसा तो नहीं हो पाया, फिर भी उस खोजबीन से जो तथ्य उभर कर आए, वे बड़े ही रोचक हैं।
इस खोज-प्रसंग में सन् 1910 के आसपास एक 'सराक' जाति का पता चला, जो पूर्व में तो आदिवासी, गोंड, भील, सौंर एवं पिछड़ी वन्य जातियों की कोटि में आती थीं किन्तु वह स्वयं अपने को "सराक" कहती थीं। वह अपने अग्रजों- पूर्वजों को भूल चुकी थी, अपना गौरवपूर्ण इतिहास एवं परम्परा भी भूल चुकी थी किन्तु अनजाने में ही वह परम्परा-प्राप्त संस्कारों को विस्मृत नहीं कर पाई थीं क्योंकि आज भी वह प्रायः शाकाहारी है, प्रायः अष्ट मूलगुणों की संस्कारवान् है। तामसिक भोजन तथा लहसुन, प्याज आदि के सेवन से प्रायः दूर, हिंसावाचक शब्द, यथा-काटोकाटो, टुकड़ा टुकड़ा करो, मारो मारो जैसे शब्द प्रयोगों से दूर, रात्रिभोजन त्यागी, छनें हुए जल का सेवन करने वाले और अभक्ष्य त्याग जैसे नियमों के यथासम्भव प्रतिपालक हैं।
उनके वर्तमान नाम तथा गोत्र - आदिदेव, ऋषभदेव, शान्तिदेव, अनन्तदेव, धर्मदेव, पार्श्वदेव आदि तीर्थकरों के नामों में सम्बन्धित मिलते हैं। वे तीर्थंकर पार्श्व को अपने कुलदेवता के रूप में मानते तथा पूजते हैं। सराक - बहुल पुरुलिया तथा बंगाल के अजीमगंज, देउलमीरा कॉटाबोनिया तथा अनाईजामबाद आदि स्थानों में उपलब्ध प्राच्यकालीन साढ़े पाँच फुट खडगासन पार्श्वमूर्ति तथा बॉकुडा जिले में बाहुलाडा ग्राम में 8वीं सदी की पार्श्व मूर्ति इसके प्रमुख प्रमाण हैं। यही नहीं, बिहार के कोल्हुआ पहाड़ से लेकर बंगाल, उड़ीसा तथा मध्यप्रदेश तक उत्खनन तथा गुफागृहों में प्राप्त पार्श्वमूर्तियाँ भी इसके जीवन्त प्रमाण हैं । उपलब्ध पुरातात्विक सामग्री के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पूर्वोत्तर भारत का यह प्रदेश पार्श्व-संस्कृति का भक्त - अनुयायी था ।
1-2. दोनों ग्रन्थों की 7/1 सूत्र की व्याख्याएँ देखिये
3. अनगारधर्मामृत 9/87
4. उत्तराध्ययन 28/8
5.
आचारांग सूत्र 1013
प्रस्तावना :: 19