Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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अनन्तानुबन्धी कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) के चक्र का घात किया, जिससे संसार दुर्गति पथ में पड़ता है। दर्शन मोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियों का घात किया, फिर आयु कर्म की तीन प्रकृतियों को काट डाला। (इस प्रकार उन्होंने अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यक् मिथ्यात्व, तिर्यञ्चायु, देवायु, नरकायु; इन दस कर्मप्रकृतियों को चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान के मध्य क्षय कर दिया; ऐसा जानना चाहिए (उसके बाद इन्द्र द्वारा प्रणम्यचरण जिनेचर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान पर आरूढ़ हो गए और एक अन्तर्मुहूर्त तक उस स्थिति में रह कर जिनेश्वर अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान पर चढ़ गये। इसके प्रथम अंश में जिनेश्वर ने नामकर्म की उन तेरह प्रकृतियों का क्षय किया, जिनके द्वारा सारा जग व्याकुल रहता है। अनन्तर दर्शनावरण की तीन कर्म प्रकृतियों - निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला एवं स्त्यानगृद्धि का नाश किया। (इस प्रकार पार्श्व ने नौवें गुणस्थान के प्रथम चरण में निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला. स्त्यानगृद्धि, नरकगति. तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय रूप चार जातियों, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यगगति, तिर्यम्त्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, इन सोलह कर्मप्रकृतियों को नष्ट किया)
इसी के द्वितीय अंश में उन्होंने आठ प्रकार की (अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानरूप कषायें जो चारित्र की घातक कही गई हैं) मध्यम कषायों का क्षय किया और उसके कारण चैतन्यरस का ध्यान किया।
इसी नौवें गणस्थान के ततीय भाग में पार्श्व ने नपंसक वेद और चतर्थ भाग में स्त्रीवेद का क्षय किया, पुनः पंचम भाग में चारों गतियों में दुःखदायक हास्यादि (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा.) कषायें नष्ट की। छठवें भाग में पुरुष वेद को भी दूर कर दिया तथा सप्तम भाग में संज्वलन (सूक्ष्म क्रोध) को भी नष्ट कर दिया तथा अष्टम भाग में संज्वलन मान का क्षय किया
और नौवें भाग में संज्वलन माया को नष्ट किया।96 इस प्रकार संसार रूपी अन्धकार को नाश करने के लिए सूर्य के समान जिनेश्वर (पार्श्व) भवन में निवास कराने वाले छत्तीस प्रकृतियों के समूह को अनिवृत्तिकरण नामक
96 रइध : पासणाहत्तरिठ 4/12