Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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धन कमाने वाला, गुणों की तथा माता-पिता आदि गुरुओं और सम्यक्त्र आदि गुणों से श्रेष्ठ मुनियों की पूजा करने वाला, प्रशस्त और सत्य वचन बोलने वाला, परस्पर में विरोध न कर धर्म, अर्थ तथा काम इन तीन पुरुषार्थों का सेवन करने वाला, अर्थ व काम पुरुषार्थों के योग्य स्त्री, ग्राम नगरादि और गृह से युक्त होने वाला, लज्जाशील, योग्य आहार तथा बिहार को करने वाला, आर्यपुरुषों की संगति करने वाला, अपने ऊपर किए हुए ठपकारों को जानने वाला, इन्द्रियों को वश में करने वाला, धर्म की विधि को प्रतिदिन सुनने वाला, दु:खी प्राणियों पर दया करने वाला और पापों से डरने वाला पुरुप गृहस्थ धर्म को धारण करने योग्य है।24 श्रावक कुल समुद्र में गिरे हुए रत्रप्राप्ति के समान ही दुर्लभ है/25 गृहस्थ धर्म का सेवन करने वाले व्यक्ति को पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन आवश्यक बताया गया है, क्योंकि यह शाश्वत सुख प्राप्त कराने वाले हैं26
अणुव्रत का स्वरूप :
हिंसादिक से एकदेश निवृत होना अणुव्रत है। इसी का खुलासा हमें आचार्य समन्तभद्र की इस परिभाषा से मिलता है.
प्राणतिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूच्छेभ्यः । स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति 128
अर्थात हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, इन पाँच पापों से विरक्त होना ही अणुव्रत है। अणुव्रत के भेद :
अणुव्रत पाँच प्रकार के होते हैं : 1. अहिंसाणुव्रत
2. सत्याणुव्रत 3. अचौर्याणुव्रत 4. ब्रह्मचर्याणुव्रत 5. परिग्रह परिमाणुव्रत
- - - - - - - .24 पं. आशाधर : सागारधर्मामृत 111 25 रइधु: पास. 1/8-14 26 वही, धत्ता-76 27 द्र. पूज्यपाद कृत सवार्थसिद्धि: हिन्दी व्याख्या 7/2 28 रत्नकरण्ड श्रावकाचार 3:52